FilmCity World
सिनेमा की सोच और उसका सच

WORLD CINEMA : बारिश की बूँदों सी कोमल ‘BARAN’

ईरान के संवेदनशील फिल्मकार माजिद मजीदी की फिल्मों पर बात बगैर बरान (BARAN) के पूरी नहीं हो सकती…ये एक ऐसी फिल्म है जिसमें उस कोमल भावना की बात की गई है जिसकी वजह से इस दुनिया में जीने की वजह बची हुई है। 2001 में रिलीज माजिद मजीदी की इस फिल्म की खूबसूरती बयां कर रहें हैं लेखक और फिल्मकार विमल चंद्र पाण्डेय।

0 899
      आम तौर पर कुछ सामाजिक समस्याएँ फिल्मों में आती हैं तो उनमें प्रेम कहानी इस तरह आती है कि बाद में वह समस्या या सरोकार मुख्य मुद्दा हो जाता है और प्रेम कहानी कहीं नेपथ्य में चली जाती है। जाहिर है इन फिल्मों के सरोकारों में प्रेम द्वितीयक होता है और प्रेम के इतर कुछ बड़ी बात कहने कि कोशिश करना निर्देशक का मुख्य ध्येय होता है। मगर कुछ फिल्में ऐसी भी होती हैं जिनका मुख्य मकसद आसपास के समस्या भरे माहौल में कुछ कोमल भावनाओं को उजागर करना होता है। ‘बरान’ (BARAN) ऐसी ही एक फिल्म है जिसमें उस कोमल भावना की बात की गई है जिसकी वजह से इस दुनिया में जीने की वजह बची हुई है। 2001 में रिलीज माजिद मजीदी की यह फिल्म कुछ ऐसे खूबसूरत दृश्यों के साथ एक कोमल प्रेम का अंकुर उगाती है जिसमें सब कुछ गौण हो जाता है।
      अफगानिस्तान से इरान आए शरणार्थियों को कोई काम तभी मिल सकता है जब उनके पास कार्ड हो और जिनके पास कार्ड नहीं होते, वो लोग चोरी छुपे मेहनत करते हैं और अधिकारियों के आने पर भागते छिपते दिखाई देते हैं। मेमार एक ऐसी ही बिल्डिंग में सुपरवाईजर का काम कर रहा है और स्वभाव से झक्की टाइप का है। 17 वर्षीय लतीफ वहाँ मजदूरों को चाय वगैरह पिलाने का काम करता है और अक्सर उनसे लड़ता भिड़ता रहता है। एक दिन एक मजदूर घायल हो जाता है और अगले दिन वह अपने छोटे से बेटे को काम करने भेजता है। उसका बेटा, जिसका नाम उसने रहमत बताया है, 14 साल का है और भारी कामों को कर पाने के लिए काफी नाजुक और कमजोर है। मेमार जब यह देखता है तो वह रहमत को लतीफ की जगह चाय वगैरह बनाने को कह देता है और लतीफ को और मजदूरों के साथ भारी काम करने में लगा देता है। लतीफ इस बात से रहमत से बहुत नाराज है कि उसकी वजह से उसका आसान काम और यहाँ तक कि कमरा भी छिन गया। लेकिन इसी बीच अचानक उसे पता चलता है कि जिसे वह रहमत नाम का लड़का समझ रहा था दरअसल वह एक लड़की है। यहाँ से लतीफ अचानक और पूरी तरह बदल जाता है। वह रहमत के लिए एक सुरक्षा भाव से भरने लगता है और यहाँ तक की एक बार जब पुलिस वाले बिना बिना कार्ड वाले मजदूरों को पकड़ने के लिए आते हैं तो वह अपनी जान पर खेल कर रहमत को बचाता भी है। इस बचाने में वह खुद गिरफ्तार हो जाता है और मेमार को उसकी जमानत देनी पड़ती है। इस घटना का नुकसान यह होता है कि अफगानिस्तान से आए मजदूरों की नौकरी चली जाती है और साथ में रहमत भी।

        यहाँ से लतीफ का सफर शुरू होता है रहमत को खोजने का। वह किसी भी तरह उसकी मदद करना चाहता है और इसके लिए वह अपनी सारी जमा पूँजी और यहाँ तक की अपनी सबसे बड़ी थाती अपना कार्ड तक बेच देता है। इस कार्ड के ना रहने पर उसकी कोई पहचान नहीं है और उसे कभी भी कहीं भी गिरफ्तार किया जा सकता है लेकिन उसे इसकी परवाह नहीं। कई पड़ावों से गुजरते वह उस लड़की को खोज निकलता है और पाता है कि वह पहले से भी अधिक कठिन काम कर रही है। वह ठगे जाने और भटकने के बाद उस तक मदद पहुँचाने में कामयाब होता है।
        फिल्म के आखिरी दृश्यों में माजिद हमेशा की तरह कैमरे से कविता रचते हैं। लतीफ को पता चलता है कि उस लड़की का नाम बरान है जिसका अर्थ होता है बारिश। बरान का परिवार ट्रक में अपने सामान वगैरह भर कर यहाँ से जा रहा है। जब वह एक टोकरी लिए बाहर ट्रक में बैठने के लिए निकलती है तो उसके हाथों से टोकरी गिर जाती है। लतीफ उसकी सब्जियाँ उठाने में मदद करता है और दोनों की आँखें पहली बार एक दूसरे को ऐसे देखती हैं कि वहाँ अपनापन ही अपनापन दिखाई देता है। बरान के होंठों पर मुस्कराहट आने ही वाली होती है कि वह अपना चेहरा बुर्के से ढक लेती है। ट्रक में बैठने से पहले उसके पाँव कीचड़ में धँसते हैं और एक पाँव की जूती निकल कर उसमें फँस जाती है। लतीफ दौड़ कर जाता है और उसकी जूती निकल कर उसे पहनाता है। वह ट्रक में जाकर बैठ जाती है। बुर्के के अंदर से उसकी आँखें अब भी लतीफ को देख रही हैं। ट्रक कीचड़ भरे रास्तों पर आगे बढ़ जाता है। लतीफ अब भी वहीं खड़ा है और बरान की जूती से कीचड़ में बने निशान को देख कर मुस्करा रहा है कि बारिश शुरू हो हो जाती है। वह निशान पानी से भर रहा है और वह गौर से उसे देख रहा है। निशान मिट्टी पर नहीं उसके दिल पर बना है और वह बरान के प्यार से भर रहा है।

    माजिद की वैसे तो पूरी फिल्म ही खूबसूरत होती है लेकिन उनकी फिल्मों का अंत सबसे खूबसूरत होता है। बरान भी इस मामले में अपवाद नहीं है। पूरी फिल्म सेल्युलोइड पर एक कविता की तरह चलती है और इसमें युद्ध की विभीषिका से विस्थापित हुए शरणार्थियों पर भी कैमरा घुमाया गया है। फिल्म को मोंट्रियल वर्ल्ड फिल्म फेस्टवल 2001 का ग्रांड पिक्स अवार्ड मिला था।
Leave A Reply

Your email address will not be published.