छलिया तीन मुख्य व दो सहायक किरदारों वाली एक त्रिकोणीय कहानी थी। मनमोहन देसाई की लोकप्रिय फिल्मों की तुलना में उनकी यह पहली फिल्म सीमित किरदारों की कहानी थी। छलिया में समकालीन दशक की आत्मा थी। इसमें कथा व कथन को सर्वाधिक महत्व मिला। फिल्म में अति नाटकीयता को जगह नहीं मिली व हास्य प्रसंग भी हवा की झोंके की तरह इस्तेमाल हुए। छलिया के हृदय में विभाजन की त्रासदी व उसके साथ घटित हुए साम्प्रदायिक संघर्ष का हिस्सा है।

हिन्दू युवती शांति (नूतन) विभाजन बाद खुद को पाकिस्तान में पाती है। शांति यहां एक बच्चे को जन्म देती है। लडके का नाम अनवर रखा गया व उसकी परवरिश मुसलमानों की तरह हुई। पत्नी के चरित्र पर संदेह करते हुए अनवर के पिता (रहमान) उसे अपनी संतान मानने को राजी नहीं। पत्नी पर नाजायज रिश्तों का इल्जाम लगाते हुए उसे कबूल नहीं करता। अपने घर व दुनिया में जगह नहीं देता। शांति की पीडा में हमें मां सीता का किस्सा याद आएगा। बेघर शांति को छलिया अर्थात राजकपूर में दुख बांटने वाला साथी मिल जाता है। राज साहेब का यह किरदार बहुत हद तक श्री 420 के किरदार का विस्तार था।

एक यादगार सीन में साम्प्रदायिक कलह के बडे संकट को बडी बहादुरी से निकाल दिखाया था। बालक अनवर हिन्दु मित्रों की भीड का हिस्सा होकर एक गुजरते हुए पठान पर पत्थरबाजी करता है। वो उस कलह का हिस्सा बन कर अनजाने में पठान में परवरिश करने वाले को घायल कर बैठा। पठान का चेहरा देखकर अनवर को अपने कृत्य पर ग्लानि हुई…क्योंकि इसी आदमी ने उसकी परवरिश पिता तरह की थी। यही वो इंसान था जिसे वो खुदा से बढकर तस्व्वुर करता था। घायल अकबर खान (प्राण) की हालात देखकर अनवर वहीं से साम्रदायिकता को हराम मान लेता है। इसकी गंभीरता उसके दुखमय विलाप में देखी जा सकती है। मनमोहन की फिल्मों में एक दूसरा अत्यंत भावनात्मक उदयीमान किरदार मां थी। इन कहानियों में मां हमेशा बच्चों से बिछड जाती थी।

मां-बच्चे को एक दूसरे की कमी काफी टीस दिया करती थी। इस नजरिए से फिल्म कहानी का एक सुखात्मक समापन आवश्यक मालूम देता था। अनवर बचपन में अपनी मां से बिछड गया था। कहानी के बडे हिस्से में उसे अपनी बिछडी मां की कसक रही। जिस स्कूल में अनवर पढ रहा था वहां उसके असल पिता (रहमान) को संयोगवश अध्यापक दिखाया गया। एक रिडींग क्लास के दरम्यान अध्यापक उसे मां पर आधारित पाठ पढने को बुलाते हैं। पाठ की संवेदना से गुजरते बालक अनवर टूट कर बिलख पडा…ज़ार ज़ार आंसू था। बालक की पीडा देखकर उसके अध्यापक पिता के दिल में संतान को लेकर हृदय परिवर्तन घटित हुआ । संतान के प्रति पुरानी नफरत को भुलाकर पिता उसे सहारा देने को बाध्य था। लेकिन यहां अनवर में ‘आ गले लग जा’ के राहुल का अक्स नजर आया। वो पिता के प्यार को मां को भी प्यार का हक़ देने की मांग पर ठुकरा गया। उसे खुद से ज्यादा मां का सुख प्यारा था।

छलिया की रूमानियत भी बेबाकी किस्म की रही। उसमें इंसानियत व वफादारी के मूल्यों के प्रति सम्मान यह रहा कि प्रेमिका की जिंदगी से चुपचाप चला जाना मंजूर था। शांति के विवाहित जीवन में वो किसी भी तरह बाधा बनना नहीं चाहता था। एक खराब पति को फिर से अपनाना शांति को मंजूर हुआ। मनमोहन देसाई की दुनिया में धर्म को आवश्यक रूप से किरदार व कहानी के साथ जोडा गया। फिर व्यक्तिवाद से अधिक परिवार को जगह मिली । बिखरे हुए परिवार का एक होना दिखाया गया…अनवर उसके पिता व मां के बिखराव का एक परिवार में एकत्र होना इस संदर्भ में जरूरी था। ऊंच-नीच व अमीर-गरीब के धु्री बीच एक सामंजस्य का एक उदाहरण छलिया में भी देखने को मिला। पति-पत्नी दोनों सक्षम परिवारों से ताल्लुक रखते थे । शांति का होने वाला पति पहली बार ही एक लक्जरी कार में मिलने आया। बाद में बेघर हो चुकी शांति को छलिया की कुटिया में रहना पडा…वो अब पुरानी शांति नहीं थी।

गरीब-बेघर स्त्रियों के बीच रहते हुए इस तरह घुल-मिल गयी कि मानो जन्म से इसी समाज की थी। देसाई की क्षमता उनकी पहली ही फिल्म से स्थापित हो चुकी थी। सुरीले गानों को बहुत दिलकश तरह फिल्माया गया। गानों में गति लाने के लिए पलों को कट कर फिर दूसरे पलों से अंडाकार जोडा गया। यह एक जादुई प्रयोग की तरह उभरकर आया था। यहां ‘ डम डम डिगा डिगा’ गाना काबिले गौर है। जिस एक शाट में छलिया की सीढी गिर रही थी, अगले शाट मे उसे किसी के कंधों पर आराम से बैठा दिखलाया गया। यह कुछ युं था मानो किसी चमत्कार या जादू ने उसे वहां बिठा दिया हो। एक दूसरे बिंदु पर शांति छलिया का नाश्ता के साथ इंतजार कर रही। इंतजार में पलकों का झुकना देखा जा सकता है। अगले शाट में वो सिर उठा रही…लेकिन अब इंतजार का समय बदल गया है। घर से बाहर खडी पति की वापसी के लिए प्राथना का शाट काबिले गौर था। लघु रूप में ही लेकिन शांति के मौजुदा हालात व पति के साथ खुशहाल कल की ख्वाहिश के संघर्ष को जरूर दिखाया गया।