बिमल रॉय वो नाम है जिसने भारतीय फिल्म उद्योग में प्रोग्रेसिव सिनेमा का नज़रिया सबसे पहले पेश किया,,,कहते हैं कि सिनेमा समाज का आईना होता है मगर ये बात कहने से ज्यादा समझने और समझाने की है..और बिमल रॉय की फिल्मे अपने इसी अंदाज़ की वजह से खास हो जाती हैं..रॉय ने सामाजिक संवेदना और उसकी उदासीनता..दोनो ही मिज़ाजों को परदे पर इतनी बुद्धिमानी से उतारा..कि ये बात साबित होती चली गयी के सिनेमा की सीमा केवल मनोरंजन की हदों तक ही बंधी नहीं है..बल्कि उसका दायरा सोशल इश्यूज़ की प्रबल अभिव्यक्ति से भी जुड़ा हुआ है..
12 जुलाई 1909 को ढाका में जन्मे बिमल रॉय की फिल्मों मे एंट्री बतौर फोटोग्राफर हुई…1935 में प्रदर्शित पीसी बरूआ की देवदास और 1937 में आयी फिल्म मुक्ति के लिए फोटोग्राफी का ज़िम्मा बिमल दा ने ही संभाला..ये उनके सिनेमा के सपने सजाने की शुरूआत भर थी..1944 तक आते-आते कैमेरे से कलाकारी करने वाले बिमल रॉय लाईट कैमेरा और एक्शन बोलने को तैयार थे…पहली फिल्म बांग्ला में बनायी..नाम था उदयेर पौथे…
बांबे मंजिल थी इसलिए ख्वाबों को पंख भी इसी शहरर से मिले ..1952 मे बांबे टाकीज़ के लिये मां जैसी कामयाब फिल्म का बनायी..लेकिन पहचान बनकर परदे पर उतरी “दो बीघा ज़मीन”..इटली के नियो-रियलिस्टिक सिनेमा से प्रेरित दो बीघा ज़मीन बिमल रॉय की एक अमर फिल्म है..1953 मे आयी दो बीघा ज़मीन… फिल्म के असल राईटर सलिल चौधरी की लिखी कहानी रिक्शावाला पर आधारित है.. फिल्म का नायक शंभू ,एक ग़रीब किसान है जो अपनी गिरवी पड़ी ज़मीन छुड़ाने के लिए पैसे जुटाने शहर चला आता है..शहरी ज़ंगल में पिसती शंभू की ज़िन्दगी के साथ उसका बेटा भी बूट पालिश करने को मजबूर है..हिंदी फिल्मों के फ़ॉर्मुला ट्रेंड से कोसों दूर ये फिल्म भूमि अधिग्रहण जैसे विषय को भी टटोलती है..हांलाकि दो बीघा ज़मीन कमर्शियल सक्सेस नहीं पा सकी लेकिन इस सिनेमा ने बिमल दा को अंतर्राष्ट्रीय पहचान ज़रूर दे दी.. कान्स और कार्लोवी फिल्म समारोहों में फिल्म ने खिताब के साथ क्रिटिकल एक्लेम भी हासिल किया..
ऐसा नहीं है कि बिमल दा एक ढर्रे पर फिल्में बनाते चले ..बांग्ला साहित्य के माईल्सटोन शरतचन्द्र चटोपाध्याय के उपन्यास परीणिता..बिराज बहू और देवदास उनकी वो सिनेमाई तस्वीरें हैं जो आज भी फिल्मकारों की इन्सपिरेशन हैं..देवदास ने तो अभिनय सम्राट दिलीप कुमार को रातोंरात ट्रेजेडी किंग बना दिया..
इसके बाद रॉय ने 1958 में पुनर्जन्म पर मधुमति और यहूदी जैसी फिल्म बनायी जो हिट रहीं.. मधुमति के लिए संगीतकार सलिल चौधरी ने ऐसी धुनें रचीं जो आज भी लोगों को ज़ुबानी याद हैं..इस तरह बिमल दा एक के बाद एक बेमिसाल तस्वीर सिनेमा को देते जा रहे थे..इसी कड़ी में सामाजिक तानेबाने मे छुआछूत जैसी विभीषिका को परदे पर लाने का साहस बिमल रॉय की सुजाता ने कर दिखाया..फिल्म में सुजाता नाम की दलित कन्या चुप रहनेवाली, गुनी, सुशील और त्यागी ‘मैरिज-मैरिटल’ यानी सेविका बनी है जबकि उसी परिवार-परिवेश की असली बेटी एक प्रतिभावान मंचीय नर्तकी, आधुनिका, वाचाल और अपनी मर्जी की इज्जत करनेवाली शख्सियत बनती है.
इस बीच सिनेमा के लोगों को ऐसा लगने लगा कि बिमल रॉय एक तरह से पैरेलल सिनेमा के साथ ही कमाल कर सकते हैं..ऐसी कानाफूसी को 1963 में आयी बंदिनी ने चुप करा दिया…फिल्म सहज और सेंसिटिव होने के साथ ही मनोरंजन के हर पैमाने पर कमाल थी…ये फिल्म हत्या के आरोप में जेल में कैद एक महिला की कहानी थी..नूतन की शानदार अदाकारी की गवाह बंदिनी सुपरहिट साबित हुई..
अपने फिल्मी सफर में बिमल दा को सात बार बेस्ट डायरेक्टर का फिल्मफेयर अवार्ड मिला..1940 और 50 के दशक में सिनेमा की एक सकारात्मक उम्मीद बनकर उभरे बिमल रॉय प्रोडक्शन की आखिरी फिल्म बेनज़ीर रही इसका निर्देशन एस.खलील ने किया..आखिर एक लंबी बीमारी के बाद 8 जनवरी 1966 को बिमल रॉय जिसे दुनिया सिनेमा के शिल्पकार के तौर पर आज भी याद करती है…फिल्मों के सतरंगी संसार को अलविदा कह गया…