“Babel” के शाब्दिक अर्थ की ओर जायें तो मतलब किसी तरह की गड़बड़ी या शोरगुल से होता है। एक ऐसी परिस्थिति जहां बहुत सारी आवाज़ें या ध्वनियां साथ में मिलकर कुछ भी स्पष्ट ना कर पा रही हों। ठीक ऐसी परिभाषा की तरह बैबल फिल्म भी ढेर सारे कथानकों के मिक्सप की कहानी है जहां गुत्थियां सीन दर सीन खुलती हैं। टाईमलाईन पर सेट की गई इस कहानी को कहते हुए मैक्सिकन फिल्म मेकर अलजेंद्रो योन सैलेस आपको मल्टी नैरेटिव ड्रामा के नये तेवरों से टहलाते हैं। जी हां वो आपको टहलाते ही हैं..मतलब कहानी के आगाज़ में आप मोरक्को के डैज़र्ट से तार्ऱूफ पाते हैं और जब रेगिस्तान की तरह आपकी सोच रेतिली हो रही होती है तो तो कैमरा जापान और अमरीका के फ्रेम पहने आपको शरारती बच्चे की तरह चिढ़ाता है। मोरक्को के इस डेज़र्ट में एक लोकल व्यापारी एक जैपेनीज़ राईफल अपने पड़ोसी को बेचता है जिसे उसके बच्चे बकरियों को खाने वाले सियार को मारने के लिये इस्तेमाल करते हैं।
युसुफ और एहमद के बीच निशानेबाज़ी को लेकर खेल–खेल में एक ट्यूरिस्ट बस निशाना बनती है। पता चलता है कि एक अमेरिकन महिला को गोली लगी है। ये गोली जिस राईफल से लगी है वो राईफल एक जैपेनीज़ की है जिसकी पत्नी की मौत, जांच के दायरे में है। कहानी अब जापान में है, जैपेनीज़ पुरूष की एक गूंगी बहरी बेटी भी है जो sexually frustrated है। बार–बार खुद को नज़रअंदाज़ किये जाने से खफ़ा ये गूंगी बहरी लड़की कई मर्दों कोseduce करने की नाकाम कोशिश करती है। उनमें से एक डिटेक्टिव भी होता है जो उसकी मां की मौत के केस की जांच का अधिकारी है।अधिकारी खुद पर काबू पाकर लड़की को समझाता है और इस दौरान लड़की अपनी मां की मौत से जुड़ी एक अहम जानकारी एक चिठ्ठी मे लिखकर डिटेक्टिव को सौंपती है जो फिल्म के खत्म होने तक गोपनीय ही रहती है। गौरतलब है कि राईफल देते वक्त मोरक्को के उस स्थानीय कारोबारी की तस्वीर जैपेनीज़ व्यक्ति के साथ हैं जो पुलिस अदिकारियों के हाथ उस वक्त लगती है जब वो अमेरिकन महिला को गोली मारने वाले बच्चों की तलाश रेत में हलकान हो रहे होते है। इस बीच निर्देशक आपको मैक्सिको भी ले जाते है जहां इस अमेरिकन महिला के दो बच्चे अपनी मेड के साथ उसके बेटे की शादी अटेंड करके वापस अमरीका लौट रहे हैं। ये वापसी कभी खत्म नहीं हो पाती क्योंकि अमेरिकन महिला के मोरक्को में गोली लगने की घटना के बाद से हालात सामान्य नहीं हैं।
कहानी जब खुद को ही समेटने में लगी होती है तब पेचिदगियां रोमांचित करती हैं। इस बेहद ट्रैजिक कहानी को उबाउ नहीं बल्कि दिलचस्प रखा गया है जो वाकई डायरेक्टर के प्रति सम्मान बढ़ाता है। मेरे लिहाज से इस फिल्म में जिस तरह का कैमरावर्क देखने को मिला है वो अपनी तरह का अकेला है क्योकि सिनेमैटोग्राफऱ Rodrigo Prieto टफ लोकेशन्स से लेकर सहुलियत वाली जगहों तक हर कहीं एक किरदारी रफ्तार अपने फ्रेम में भी रखते हैं। रेत में रहगुज़र कर रहे उस ग़रीब परिवार का पिता अपनी बेटी को पीटता है क्योंकि नहाते वक्त रोज़ उसका छोटा भाई उसे देखता जिसे वो जानते हुए भी मना नहीं करती।यहां निर्देशक ने ये पूरी तरह से साबित करने की काबिलेतारीफ कोशिश की है कि ग़लत और सही का निर्धारण स्थान और परिस्थिति पर के हिसाब से भी निर्धारित नहीं हो सकता। अपनी बहन को नहाते देखने वाले उसके भाई का अपनी बहन कै बारे में सोचकर हस्तमैथून(Masturbation) करना ग़लत है या चाईनीज़ लड़की का बगैर पैंटी पहने क्लब में लड़कों को देखकर sexually provocative behavior करना ग़लत? और अगर ये नैतिकता के दायरे में ग़लत है तो सही क्या है? क्या वो बच्चे जिस परवरिश और माहौल में रहने को मजबूर हैं वो सही है?या गूंगी बहरी जैपेनीज़ लड़की को लड़कों द्वारा नज़रअंदाज़ करना सही है क्योंकि वो गूंगा और बहरापन ये तो स्वीकार के योग्य ही नहीं? मगर कैसे सही है..रेत में इक्का दुक्का मकानों को खंगालने जब देशों के उच्चायोग पहुंच सकते हैं तो बेहतर माहौल को पहुंचने में क्या परेशानी और बिस्तर पर जब मेट्रोपॉलिटन लड़कियों को बिछाने में कोई आपत्ति नहीं तो गूंगी बहरी लड़की की शारीरिक इच्छाओं की बेक़दरी क्यों?
मैं जानता हूं ये सवाल चाहे फिल्म उठाये या कोई और..जवाब गढ़े जायेंगे मगर मिलेंगे नहीं। बैबल वास्ता कराती है हमारी व्यवस्था से जहां भीड़ में रहते हुए भी, लोगो से घिरे रहते हुए भी हम एकाकी ही होते हैं ठीक उस जैपेनीज़ लड़की की तरह जो डिस्को की बीट..लोगों के थिरकते मचलते जिस्मों के बीच..अधिकतम रंगीन रौशनी की लड़ाईयों में खुद को तन्हा पाती है। बैबल एक ऐसी फिल्म है जहां आपको तब तक झकझोरा जाता है जबतक आप ग़लत और सही ये दो शब्द भूल जाने का वादा नही करते ।