मुझे ये फिल्म देखते वक्त जिस बात का ख्याल सबसे पहले आया वो था कि क्या जैसे हॉलीवुड के फिल्मकार कई वर्षों से अश्वेतों पर हुए अत्याचार, उनके नागरिक अधिकारों पर संवेदनशील तरीके से महत्वपूर्ण फिल्में बना रहे हैं वैसे भारतीय फिल्मकार बंटवारे के बाद भारतीय मुसलमानों पर उसी संवेदनशीलता से फिल्में बना पाये..जवाब मिला बनाया तो सही लेकिन सिर्फ गिनती के….जिसमें एम एस सथ्यू की गर्म हवा के अलावा कोई खास नाम सूझता नहीं….
खैर..बात ग्रीन बुक की..ग्रीन बुक कहानी है एक पियानिस्ट की जो अश्वेत हैं और जिन्हें गोरे लोग अपनी महफिलों में अपनी इमेज पॉलिश करने के लिए बुलाते हैं….समानता का ये सिर्फ दिखावा भर है क्योंकि जिन महफिल्मों की वो शान हैं..उनमें उन्हे गोरों के बीच खाने की टेबल तक पर बैठने का अधिकार नहीं…उनके लिए अलग टॉयलेट है…और तो और अगर वो गाड़ी की पिछली सीट पर बैठें हों..और कार एक गोरा व्यक्ति चला रहा हो तो पुलिस उन्हें गिरफ्तार करने से भी नहीं चूकती…..ये कहानी एक सच्ची दोस्ती की है जिसका विकास होते देखना खुद में किसी अच्छे बदलाव से एहसासशुदा होने जैसा है…

फिल्म में इस पियानिस्ट का ड्राइवर है टोनी लिप जिसका असल नाम है टोनी वैलेलोन्गा लेकिन लगातार बोलने की वजह से कॉलेज के दिनों से उसे टोनी लिप बुलाया जाता है…टोनी अमेरीका के किसी होटेल में बाउंसर है मगर सर्दियों के दिनों में क्रिसमस से दो महीने पहले ये होटेल दो महीने के लिए बंद होता है…टोनी को नौकरी की जरूरत है क्योंकि वो ऊल जुलूल शर्तों पर पैसा लगाकर कौड़ियां नहीं कमा सकता …नौकरी की खोज आकर खत्म होती है पियानिस्ट पर…पियानिस्ट अपने महलनुमा ओपरा हाउस में रहता है….जहां वो अकेला है..उसका एक खादिम है जिसका नाम अमित है वो भारतीय मूल का है..इन दोनों के सिवा वहां उस घर में सिर्फ एंटीक चीजें हैं..वाद्य यंत्र हैं…..पहली मुलाकात में डॉक्टर शर्ली, टोनी लिप से जिज्ञासावश पूछते हैं कि क्या उसे अश्वेत लोगों के साथ काम करने में दिक्कत है..टोनी जिसके दिमाग में पहले से ब्लैक लोगों के प्रति पूर्वाग्रह है…वो नकार देता है..कहता है कि उसके घर में हाउसहोल्ड का काम करने कुछ ब्लैक लोग आए और उसके घर में उन्हें सम्मान दिया गया..टोनी ये झूठ नौकरी पाने के लिए कहता है…जबकि सच्चाई ये होती है कि टोनी के घर में ब्लैक लोग आते हैं..उन्हें सम्मान भी मिलता है…मगर ये सम्मान टोनी की पत्नी देती है..और टोनी को इतनी चिढ़ है कि वो ब्लैक लोगों के जूठे ग्लास को डस्टबिन में डाल देता है….मगर वही टोनी अश्वेतों के प्रति अपने पूर्वाग्रहों से परे नौकरी की लालसा में झूठ बोल रहा है…

एक और सीन है….गाड़ी किसी सुनसान जगह भरी दोपहरी में रुकी है..गोरा व्यक्ति कार के गर्म होने की वजह से उसमें पानी डाल रहा है…अंदर अश्वेत मालिक बैठा है…सड़क के उस पार खेत हैं..कपास के..जहां ढेर सारे अश्वेत नागरिक काम कर रहें हैं…डॉल शर्ली कार से बाहर आते हैं…..कुछ देर खड़े रहते हैं..फिर गोरा व्यक्ति कार का दरवाजा खोलता है..शर्ली के लिए ठीक वैसे ही कार के दरवाजे खोलता है जैसे दुनिया का कोई ड्राइवर अपने मालिक के लिए खोलता है..उन्हे सम्मानपूर्वक बिठाता है…..ये सारा दृश्य कपास के खेत में काम कर रहे मजदूर देख रहे हैं..वो देख रहे हैं कि सड़क के पार कैसे दुनिया बदल चुकी है..लेकिन ये बदलाव उनकी जिन्दगी में न जाने कब आयेगा…..इस सीन को बगैर किसी शोर शराबे के दिखाया गया है…और ये फिल्म के सबसे मजबूत दृश्यों में से एक है…
द ग्रीन बुक की खासियत ये है कि ये बड़े हौले हौले स्वाभाविक तरीके से आपके अंदर अच्छाई पर विश्वास करने या अच्छा इंसान होने की प्रेरणा भरने का काम करती है…एक काले पियानिस्ट और उसके गोरे ड्राइवर के बीच मानवीय मूल्यों की ये कमाल की कहानी है….दोनों में एक दूसरे के प्रभाव में आकर दिखने वाले धीमे बदलाव की दास्तां हैं….सबसे खूबसूरत सीन है फिल्म के अंत का..जहां क्रिसमस से पहले लौटने का वादा करने वाला टोनी लिप क्रिसमस के दिन रात में घर पहुंचता है..मेहमान परिवार के लोग उसे देख काफी खुश हैं….टोनी को देख लग रहा है कि उसकी जिन्दगी में खालीपन है..वो डॉक्टर शर्ली के साथ हर रोज रहा है..उनके अच्छे दिनों और बुरे अनुभवों में मगर आज क्रिसमस के दिन उसे परिवार के बीच भी उनकी कमी खल रही है..वो अपने अंदर के बदलाव को साफ साफ समझ पा रहा है….तभी दरवाजे पर घंटी बजती है और डॉक्टर शर्ली शैंपेन की बोतल के साथ सामने होते हैं…घर का पूरा माहौल बदल जाता है..टोनी शर्ली को गले लगा लेता है…पूरी गर्मजोशी और भावुकता के साथ फिल्म यहीं खत्म हो जाती है और फिर क्रेडिट पर हमें नजर आती है वो असली दास्तां जो 1962 में घटी थी…
अब फिल्म का टाइटल ग्रीन बुक क्यों है..ग्रीन बुक वो है जो जो अश्वेतों की सहूलियत के लिए बनाई गई थी..इस किताब में उन रेस्त्रां, ठहरने की जगहों ,दुकानों और नक्शे होते थे जो अश्वेत लोगों के लिए मुफीद होते थे…सोचिए कैसा वक्त रहा होगा वो जब अपने अधिकारों की लड़ाई भी लड़ना मुमकिन न था..ऐसे वक्त में सपने जीना तो बहुत दूर की बात थी..