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सिनेमा की सोच और उसका सच

There are so many show- offs in journalism………..

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फिल्म Shattered Glasses की ये लाइन फिल्म की शुरूआत में है और सच में यही हक़ीक़त भी है जर्नलिज्म यानि पत्रकारिता के पेशे की..वो जो लोग इस बेहद संवेदनशील करियर में दिनरात मेहनत कर रहे हैं, कोई पुलित्ज़र पा रहा है तो कोई छोटे पुरस्कार, किसी का दबदबा है तो किसी का मोल कौड़ियों में.उन सबकी प्रतिनिधि कहानी है शैटर्ड ग्लासेज़…इस पेशे में परेशान लोगों की यही कहानी है कि वो दुनिया के हक हकूक की बाते तो ज़ोर शोर से करते हैं लेकिन खुद एक डेमोक्रेटिक मीडियम का हिस्सा बनकर भी चुप्पी में अपना काम करते है, मर रहे हैं अपने पेशे में लेकिन जीने का ढोंग सीख लिया है, ये शो-ऑफ नहीं तो और क्या है..
लेकिन ये फिल्म इन तमाम बातों को बस छूती है क्योंकि असल में तो ये एक ऐसे असल फेकिंग न्यूज़ फ्रॉड को सिनेमाई शक्ल दे रही होती है जो उजागर बस कहीं कहीं कभी कभी हुआ…
THE NEW REPUBLIC MAGAZINE पहली बार साल 1914 में पब्लिश्ड हुई,,मई 1998 तक आते आते ये एक जाना पहचाना नाम हो गई अपने 15 राइटर्स और एडिटर्स की लाजवाब टीम की बदौलत..इन सभी पत्रकारों की औसत उम्र 26 के आसपास रही और उनमें जिसने अपने बेहतरीन काम के ज़रिए जगह बनाई वो था सबसे छोटा एसोसिएट एडिटर स्टीफन ग्लास…लेकिन रूकिये लाजवाब काम केवल न्यूज़ बनाना नहीं है, लाजवाब हुनर तो इसलिए क्योंकि वो एक के बाद एक फेक आर्टिकल प्रकाशित कराता रहा और मैगज़ीन्स के मातहतों को इसकी भनक तब तक ना लगी जब तक एक लीडिंग मैगजीन ने इस फेक न्यूज़ का भंडाफोड़ किया.
शैटर्ड ग्लासेज़ के ज़रिए डायरेक्टर बिली रे बारीक डिटेलिंग के साथ इस असल घटना को बोरिंग नहीं बल्कि दिलचस्प बनाया है। वो घटनाओं को पहले जोड़ते हैं..फिर आपका वास्ता इससे बिठाते और जब सब कुछ आपकी समझ के दायरे में स्थापित हो जाता है तो चौकाते हैं।
शैटर्ड ग्लासेज़ टॉम क्रूज़ की निर्माण में बनी एक बेहतरीन फिल्म है जिसे मिस नहीं किया जाना चाहिए।

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