“कीचड़ बहुत है? लोग भी बहुत हैं।” : Article 15 पर डॉ. श्रीश पाठक की राय
तुम बिन की ताजी बयार वाले रोमानी निर्देशक में सहसा यह साहस आ जाना कि कला हस्तक्षेप का भी पुरजोर माध्यम है और ऐसा करते हुए मनोरंजन भी संजोया जा सकता है; एक बेहद ही राहत देने वाली बात है। पढ़िए Article15 पर डॉ. श्रीश पाठक की राय
Article 15 – “कीचड़ बहुत है?
लोग भी बहुत हैं।”
एजेंडा फिल्मों के इस दौर में जब इंडस्ट्री के कुछ बेहतरीन निर्देशक अपनी प्रतिभा को ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ परोस-बेच खुद को जाने-अनजाने रिड्यूस करने में मशगूल हों, ऐसे में तुम बिन की ताजी बयार वाले रोमानी निर्देशक में सहसा यह साहस आ जाना कि कला हस्तक्षेप का भी पुरजोर माध्यम है और ऐसा करते हुए मनोरंजन भी संजोया जा सकता है; एक बेहद ही राहत देने वाली बात है। कला से कॉमर्स की यात्रा तो कई निर्देशक करते दिखते हैं पर इसकी उलट यात्रा तभी हो सकती है जब निर्देशक को क्रमशः स्वयं पर विश्वास आता जाय कि वह यों निरपेक्ष नहीं रह सकता, अपने तईं उसे भी कहना होगा, कुरेदना होगा। कला का यह माध्यम दर्पण बना रहे, इसके लिए पारदर्शी होना होता है और यह कभी आसान नहीं होता। सौ करोड़ी कितने ही प्रोडक्शन हाउसेस के टेबल्स पर भी ऐसी कहानियाँ पहुँचती होंगी, जिनमें समाज का दोहरापन अपनी पूरी नंगई के साथ पैबस्त होता है लेकिन या तो उन्हें छुआ ही नहीं जाता या उन्हें यों सजाकर परोसा जाता है कि उन कहानियों की राष्ट्रीयता ही बदल जाती है। मोनोटोनस अखबारों की कुछ भूरे-काले शीर्षक अभी भी जिन्हें झिंझोड़ते हों, और उन्हें पढ़कर अगर कोई उन्हें करीने से अपने माध्यम में फिर अभिव्यक्त करना चाहता हो कि कुछ सवाल हमेशा चुभते रहें, कि कहीं हमें हादसों की आदत न लग जाए, दिखे सबकुछ और दिखाई कुछ भी न दे, कि कहीं हम धीरे-धीरे सबकुछ महसूसना ही बंद कर दें और सभ्यता को कछुए की तरह ओढ़ बस अपनी खोखली जिंदगी लंबी तानते रह जाएं। अनुभव सिन्हा 2.0 ऐसे ही निर्देशक हैं। रोमांस, रोमांच जिसे रचना आया हो, जो आराम से फार्मूला फिल्में बना लगातार मायानगरी की चमकीली सीढियाँ चढ़ सकता हो, फिर भी अगर उसे यथार्थ का बनारस लुभाता हो तो यह बड़ी बात है। इस विषय को चुनना, इसपर कहानी बुनने के लिए एक युवा प्रतिष्ठित साहित्यकार गौरव सोलंकी को चुनना और उस युवा कलम का कहानी की कहन में वही धार देना जो उसके अपने अनुभव में आयी रगड़न से निकली हो तो उस फ़िल्म का नाम बनता है- आर्टिकल 15.
इस फ़िल्म के दो प्रमुख विषय हैं, बलात्कार और जाति। दोनों चीजें कृत्रिम हैं और उनकी गहराई में बेलौस लोलुपता है। ये दोनों कुछ यों आपस में गुथे-मुथे हैं कि हमारी संस्कृति में बलात्कार के बाद हुए विवाह को भी मान्यता मिली और इस राक्षस विवाह से पैदा हुईं संतानों की अलग जाति भी वर्णित है, जो कि उनके माता-पिता की जातियों से पृथक होगी। लिंग आधारित सत्ता संघर्ष में हथियार बलात्कार बना तो वहीं राजनीतिक-सामाजिक सत्ता के लिए जाति का ब्रह्मास्त्र ईजाद हुआ। दोनो अस्त्र स्त्री की योनि से निकले और स्त्री की योनि पर ही धावा बोलते हैं। वर्ण व्यवस्था से जाति व्यवस्था तक की सड़न यात्रा, मानवीय मूल्यों के लगातार कुत्सित, निर्मम और बेढब होते रहने की बजबजाती यात्रा है। एक सामाजिक व्यक्ति के रूप में हमारा सिकुड़ना उस बजबजाती यात्रा को माथे पर तिलक लगाकर गर्व करने से स्पष्ट हो जाती है। हमारा बुखार हमें ही ठीक करना होगा। बुखार ठीक करने के लिए पहले हमें यह स्वीकारना होगा कि तप रहे हैं हम। यह फ़िल्म इतना जता देती है कि तेज बुखार में जल रहे हैं हम।
यह फ़िल्म इतिहास पर आधारित नहीं है और न ही इसका दावा है कि यह सत्य कहानी पर आधारित है, डिस्क्लेमर के क्लेम को हमें कला अभिव्यक्ति के लिए मान देना ही चाहिए। दो घण्टे के एक माध्यम में यदि कोई बात पुरजोर रखनी हो तो उसे एक स्वतंत्र बहाव तो देना ही होगा। फ़िल्म, अखबार और किताब में अंतर होना ही चाहिए। फ़िल्म की एडिटिंग निर्मम है, बस उतना ही रखा है, जिसके बिना चलना असम्भव हो, इससे दर्शक को हर फ्रेम में चुस्त बैठ निहारना होता है, यशा रामचंदानी की एडिटिंग दो घण्टे तक सभी तरह के दर्शकों को अपने पाश में बांधे रखती है। सिनेमेटोग्राफी फ़िल्म मुल्क की ही तरह ईवान मुलिगन की है और इस फ़िल्म में भी यह प्रभावित करती है। फ़िल्म के शुरुआती कुछ दृश्य इतने प्रभावी हैं कि उन फ्रेम्स को यदि निर्देशक कुछ और अधिक सेकेंड दे दे तो भी दर्शक अपलक उन्हें देखता ही रहेगा। बैकग्राउंड संगीत इस मूवी को वह असर देता है जिससे छवि गहरी उतरती जाती है। शक़ील आज़मी के लिखे हर्फ़ों को कई संगीतकारों ने अपनी धुन और साज से सजाया है। फ़िल्म, अभिनेत्री सयानी गुप्ता और अन्य की आवाज में गाये हुए एक लोकगान से अवश्य शुरू होती है लेकिन फ़िल्म में गाने जहाँ-तहाँ नहीं डाले गए हैं, इसतरह फ़िल्म कहीं डाइल्यूट नहीं होती, लगातार इंटेंस बनी रहती है।
अभिनय की दृष्टि से यह फ़िल्म ज़ेहन में कुछ किरदारों को तह से रख देती है। सयानी गुप्ता जब आई हैं, जहाँ आई हैं और जैसे आई हैं, ध्यान खींचती हैं। उनके चेहरे के प्रत्येक भाव पूरे शिद्दत के साथ पर्दे पर रिसते हैं। उन्हें इस फ़िल्म में कोई इग्नोर नहीं कर सकता। जीशान इस फ़िल्म में खासे बोल्ड लगे, किरदार की मांग भी थी और वे इसमें खूब ढले भी। सयानी गुप्ता के साथ एक दृश्य में उनका किरदार जब फफककर पिघलता है तो दर्शक भाप से उछलते हैं। मनोज पाहवा 2.0 अपने कैरियर के बेहतरीन फेज में हैं। इतना अंतर है इनकी अबकी भूमिका में कि विश्वास ही नहीं होता। मुल्क में जितनी तीव्रता से इन्होंने बेबसी को जिआ था उसी तीव्रता से यहाँ वे मक्कारी जी रहे हैं और खूब फब रहे हैं। इन्हें सोचकर अब भूमिकाएँ गढ़ी जाएंगी, यह इनकी सफलता है। कुमुद मिश्रा के साथ मनोज पाहवा के कुछ दृश्य तो बेहद शानदार बन पड़े हैं। कुमुद अपनी भूमिका में फब रहे हैं। आयुष्मान खुराना मुझे थोड़ा बंधे लगे। वे बिंदास भूमिकाओं में खुलकर निखरते हैं। इस किरदार को कई बार जो दृढ़ता चाहिए थी, मुझे उसकी कहीं-कहीं कमी खली। उनका फिल्मों का चयन उन्हें अपने समकालीनों से यों भी अलग करता है, पर Uजितना बड़ा फलक उन्हें इसमें अभिनय का मिला था, शायद उतना प्रभाव वे नहीं निर्मित कर सके हैं। बाहुबली फेम नासर आखिरी कुछ दृश्यों में खासा असर छोड़ते हैं। अनुभवी अभिनेता नासर सारे भाव अपने चेहरे से ही व्यक्त कर देते हैं, छिटपुट डॉयलॉग तो जैसे बस एक औपचारिकता हों। अपेक्षाकृत नए दो अभिनेता अपने अभिनय में मुझे खासा अच्छे लगे इस फ़िल्म में। ठेकेदार की भूमिका में वीन हर्ष की आँखें और संवाद अदायगी बेहतरीन है। इसीतरह सुम्बुल तौक़ीर एक प्यारी सी छोटी भूमिका में जब भी आती हैं पर्दे पर अच्छी लगती हैं।
फ़िल्म मुल्क की तरह ही इस फ़िल्म में भी कहीं न कहीं मैं एक बहस की उम्मीद कर रहा था जो जाति के उलझनों पर होती, क्योंकि यह एक बेहद जटिल विषय है। आर्टिकल-15 में बहस पर नहीं जोर घटना पर अधिक था और घटना में जाति की विडंबना के साथ-साथ बलात्कार की त्रासदी भी थी। यह दोनों विषय किसी एक फ़िल्म में अपने अधिकांश विमर्श के साथ ले आना यकीनन जटिल कार्य है। बलात्कार, जाति प्रथा की समस्या और भ्रष्ट राजनीति व प्रशासन के विषय आयामों को लेकर बुनी गई कहानी अपने कथ्य में इतनी गरिष्ठ बनी कि फ़िल्म मुल्क जैसी स्पष्टता एवं फोकस इसमें नहीं निभ सका। अनुभव सिन्हा ने बेबाक होकर फ़िल्म मुल्क में धर्म के जटिल परतों को सामने से ललकारा था, काश कि यहाँ भी वह साहस दिखाया जाता, तो यह एक बेहद शानदार प्रयास होता। यों, यह प्रयास कई उम्दा संवादों से करने की कोशिश हुई है लेकिन उद्धरित किये जा सकने वाले संवाद फ़िल्म मुल्क में ढेरों थे और वे खासे चर्चित भी रहे। जाति पर प्रकाश झा ने फ़िल्म आरक्षण में कुछ बुनियादी प्रश्न जरूर उठाये थे लेकिन अंततः वे कोई स्पष्ट स्टैंड नहीं ले पाते या लेना नहीं चाह पाते, यहाँ यह फ़िल्म वह अवसर बखूबी कर पाती जो कि अभी वह कुछ हिस्सों में ही कर सकी है।
यह एक बेहद उत्साहजनक तथ्य है कि अब ऐसे विषयों पर फिल्में बनाने को फिल्मकार पूरी निर्भयता के साथ तैयार हो रहे हैं जिन्हें जानबूझकर स्पर्श नहीं किया जाता था। नए भारत को कला माध्यमों में अगर ऐसे नए साहस की दरकार है तो उसकी आवक यकीनन प्रशंसनीय है। इस फ़िल्म को देखा जाना चाहिए और इसपर जमकर बात होनी चाहिए। इस फ़िल्म के एक संवाद को आधार बनाकर कहें तो यह कहना होगा कि निराश नहीं होना है, देश हमारा है, इसे हमें ही दुरुस्त करना होगा। माना कि कीचड़ बहुत है पर साथ लोग भी तो बहुत हैं।