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लगान, स्वदेस और जोधा अकबर जैसी महान फिल्में असर छोड़ पायीं इस शख्सियत की वजह से !

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खबर है कि लगान, स्वदेस और जोधा अकबर जैसी मास्टरपीस बनाने वाले निर्देशक आशुतोष गोवारिकर श्री महिला गृह उद्योग के लिज्जत पापड़ के सफ़र पर फिल्म बनाने वाले हैं…फिलहाल वो पानीपत की तीसरी लड़ाई पर फिल्म बनाने में व्यस्त हैं जिसका नाम भी पानीपत रखा गया है। मोहनजोदड़ो के बाद पानीपत में जो एक कमी रहेगी वो है फिल्म में डॉयलॉग राइटर केपी का नाम न होना क्योंकि वो अब इस दुनिया में नहीं है..पानीपत में केपी वाली जिम्मेदारी जाने माने कवि लेखक अशोक चक्रधर निभायेंगे। फिल्म में अर्जुन कपूर मराठा राजा सदाशिव राव भाउ के रोल में हैं तो संजय दत्त अहमद शाह अब्दाली की भूमिका निभा रहे हैं…कृति सैनन पार्वती बाई का किरदार निभायेंगी तो पद्मिनी कोल्हापुरे, मोहनिश बहल और कुणाल कपूर जैसे कलाकार भी काफी खास भूमिकाओं में हैं।

आशुतोष गोवारिकर की सोच हमेशा भारतीयता को दिखाने वाली कहानियों में रही..उनकी फिल्म लगान हो, स्वदेस हो , जोधा अकबर या मोहनजोदारो सभी में उन्होने राष्ट्रीयता की बात को रेखांकित किया…इस काम में उन्हे काम आया खुद का लंबा पढ़ने लिखने और फिल्में बनाने का अनुभव और साथ ही बेहतरीन लेखकों का साथ…जहां लगान की कहानी उन्होने खुद लिखी और पटकथा पर अब्बास टायरवाला, संजय दायमा और कुमार दवे के साथ मिलकर काम किया तो वहीं बेहतरीन संवाद लिखे मरहूम के पी सक्सेना ने..
“चूल्हे से रोटी निकालने के लिए चिमटे का मुंह तो जलाना ही पड़ता है.”


अब बात करते हैं स्वदेस की..स्वदेस एक ऐसी फिल्म है जिसमें आशु ने राष्ट्रीयता की भावना को बहुत ही प्रबल रूप में पेश किया..देशभक्ति और राष्ट्रीयता की भावना में कितना बड़ा फक्र होता है ये बात स्वदेस समझा गयी और बहुत गहरे उतर गयी। आशुतोष की वैसे मुझे ज्यादातर फिल्में पसंद हैं लेकिन स्वदेस जैसी कोई भी नहीं..मुझे आज भी याद है मैंने गोरखपुर के एक छोटे सिंगल स्क्रीन थियेटर में ये फिल्म देखी थी और फिल्म देखने के बाद इसने बेचैन कर दिया था..किसी गली में चलते वक्त भी लगता था कि हमने देश के लिए किया क्या है..कितना कुछ करना बाकी है..ये कुछ ऐसे असर वाली फिल्म थी…इस फिल्म की कहानी एम जी सथ्या के साथ मिलकर आशुतोष गोवारिकर ने तैयार की थी..फिल्म के स्क्रीनप्ले पर लगभग आधा दर्जन लोगों ने काम किया था..इनमें आशु के अलावा शामिल थे समीर शर्मा, ललित मराठे, अमीन हाजी, कारलोते व्हीटी कोल्स, यशोदीप निगुणकर और अयान मुकर्जी..फिल्म के संवाद एक बार फिर के पी सक्सेना साहब ने लिखे थे..
” अपने ही पानी में पिघलना बर्फ का मुकद्दर होता है”

इस बेमिसाल जुगलबंदी की तीसरी और कई मायनों में सबसे महत्वपूर्ण फिल्म है जोधा अकबर…मुगल बादशाह जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर के बाल्यकाल से युवावस्था तक की चरित्र की बारीकियों के साथ भारत की गंगा जमुनी तहजीब को समझने में ये फिल्म मील के पत्थर सरीखा काम करती है…फिल्म की कहानी हैदर अली ने लिखी थी..कौन हैं हैदर अली उसके लिए यहां उनकी एक तस्वीर भी दे रहा हूं…
हैदर अली ने ही फिल्म जोधा अकबर की कहानी लिखी थी..इस कहानी को पटकथा का जामा हैदर और आशु ने मिलकर पहनाया था..जबकि मरहूम केपी सक्सेना ने फिल्म के संवाद लिखे थे..संवाद भी एक से बढ़कर एक…जरा गौर फरमाइये –

  1. “पानी और तमन्नाओं की तासीर एक सी है..आगे बढ़ते जाना”
  2. “जिन्दगी की खुशियों का बंटवारा ..शंख और अज़ान की आवाज़ से तय नहीं होता”
  3. .”सिक्का गिरने पर आवाज़ होती है..उठाते वक्त नहीं”


इस पूरे लेख में केपी की शख्सियत को ऊभारने के पीछे मकसद एक है कि कितना जरूरी है किसी लेखक के लिए पढ़ते लिखते रहना..अपने आसपास के बदलाव से वाकिफ होना…और केपी को करीब से जानना है तो इस लेख में थोड़ा और आगे बढ़िए….
केपी की पहली पहचान साहित्य या पत्र पत्रिकाओं के जरिए ही हुई…धर्मयुग और फिल्म पत्रिका मायापुरी के जरिए केपी ने खुद में लोगों की दिलचस्पी बढ़ाई…वो विशेष तौर पर अपने चुटीले व्यंग्य के लिए जाने जाते थे.. इन पत्र पत्रिकाओं में केपी के कई व्यंग्य तो इतने गजब होते कि लोग महफिलों में जिक्र कर खूब हंसते…
केपी सक्सेना का पूरा नाम कालिका प्रसाद सक्सेना था। केपी ना सिर्फ हिंदी में बल्कि उर्दू और अवधी में भी सिद्धहस्त थे। साहित्य में विशेष योगदान के लिए उन्हें सन् 2000 में पद्मश्री से नवाजा गया था।

केपी ने दूरदर्शन के लिए सीरियल ‘बीवी नातियों वाली’ लिखा था। केपी लेखक बनने से पहले रेलवे में स्टेशन मास्टर थे। इसलिए रेलवे को लेकर मजाक उनकी रचनाओं का अक्सर प्रमुख हिस्सा हुआ करता था। उनके व्यंग्य में आला दर्जे के ‘डिटेल्स’ व्यंग्य प्रेमियों का मन मोह लेते थे। लखनऊ की नफासत को बेहद उम्दा तरीके से उन्होंने अपनी रचनाओं में पेश किया।


उनकी गिनती वर्तमान समय के प्रमुख व्यंग्यकारों में होती है। हरिशंकर परसाई और शरद जोशी के बाद वे हिन्दी में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले व्यंग्यकार थे। उन्होंने लखनऊ के मध्यवर्गीय जीवन को लेकर अपनी रचनायें लिखीं। उनके लेखन की शुरुआत उर्दू में उपन्यास लेखन के साथ हुई थी लेकिन बाद में अपने गुरु अमृत लाल नागर की सलाह से हिन्दी व्यंग्य के क्षेत्र में आ गये। उनकी लोकप्रियता इस बात से ही आँकी जा सकती है कि आज उनकी लगभग पन्द्रह हजार प्रकाशित फुटकर व्यंग्य रचनायें हैं जो स्वयं में एक कीर्तिमान है। उनकी पाँच से अधिक फुटकर व्यंग्य की पुस्तकों के अलावा कुछ व्यंग्य उपन्यास भी छप चुके हैं..भारतीय रेलवे में नौकरी करने के अलावा हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं के लिये व्यंग्य लिखा करते थे। के पी सक्सेना का जन्म सन् 1934 में बरेली में हुआ था। केपी जब केवल 10 वर्ष के थे उनके पिता का निधन हो गया। उनकी माँ उन्हें लेकर बरेली से लखनऊ अपने भाई के पास आ गयी। केपी के मामा रेलवे में नौकरी करते थे। चूँकि मामा के कोई औलाद न थी अत: उन्होंने केपी को अपने बच्चे की तरह पाला। केपी ने बॉटनी में स्नातकोत्तर एमएससी की और कुछ समय तक लखनऊ के एक कॉलेज में अध्यापन कार्य किया।


बाद में उन्हें उत्तर रेलवे में सरकारी नौकरी के साथ-साथ उनकी पसन्द के शहर लखनऊ में ही पोस्टिंग मिल गयी। इसके बाद वे लखनऊ में ही स्थायी रूप से बस गये। उन्होंने अनगिनत व्यंग्य रचनाओं के अलावा आकाशवाणी और दूरदर्शन के लिए कई नाटक और धारावाहिक भी लिखे। व्यंग्य लेखक होने के बावजूद उन्हें कवि सम्मेलन में भी बुलाया जाता था।
जीवन के अन्तिम समय में उन्हें जीभ का कैंसर हो गया था जिसके कारण उन्हें 31 अगस्‍त 2013 को लखनऊ के एक निजी अस्‍पताल में भर्ती कराया गया। परन्तु इलाज से कोई लाभ न हुआ और आख़िरकार उन्होंने 31 अक्टूबर 2013 सुबह साढ़े 8 बजे दम तोड़ दिया..फिल्मसिटी वर्ल्ड ने केपी साहब के जीवन को आपके सामने रखा, आप उस पर जरूर अपनी राय दें।

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