गुरुदत्त की 1957 में आई फिल्म प्यासा मानवीय रिश्तों और उनकी निरर्थकता की बात करने वाली दुनिया की सबसे सशक्त फिल्मों में से एक है। बाजी, जाल, आर-पार और सीआईडी जैसी थ्रिलर और मिस्टर एंड मिसेज 55 जैसी हास्य फिल्म के बाद आई यह फिल्म गुरुदत्त के कैरियर ग्राफ को पूरी तरह से बदल देती है और उन्हें भारत के सबसे संवेदनशील निर्देशकों की कतार में लाकर खड़ा कर देती है जिस कतार से उन्हें बाद में कागज के फूल निकालती है और दुनिया के सर्वश्रेष्ठ निर्देशकों के खाँचे में डालती है।

विजय एक शायर है जो अपनी नज्में छपवाने के लिए अखबारों और पत्रिकाओं के दफ्तरों में चक्कर लगाता रहता है लेकिन कोई संपादक उसे घास नहीं डालता क्योंकि उन्हें गुल-ओ-बुलबुल और जाम और सुराही पर शेर चाहिए जबकि विजय की नज्में भूख और बेरोजगारी पर हैं। विजय के घर में सिर्फ उसकी माँ है जो उसकी परवाह करती है। उसके दोनों भाई उसके काम न करने पर बहुत नाराज रहते हैं और उसे ताने देते रहते हैं। विजय के नज्मों की फाईल उसके भाई कबाड़ी वाले को बेच देते हैं और परेशान विजय उन्हें ढूँढ़ने में नाकामयाब होने के बाद निराश हो जाता है। तब उसकी अपनी ही नज्म गाती हुई एक लड़की से मुलाकात होती है। वह उस लड़की का पीछा करता है और उसे पता चलता है कि वह गुलाबो नाम की एक वेश्या है जिसने उसकी नज्मों वाली फाईल खरीद ली थी। विजय के कॉलेज के जमाने की उसकी प्रेमिका मीना उसकी गरीबी की वजह से एक अमीर प्रकाशक से शादी कर लेती है और बाद में वही प्रकाशक विजय को नौकरी पर रख लेता है। मीना लौट कर विजय के पास आना चाहती है लेकिन विजय उसे नकार देता है। एक नाटकीय घटनाक्रम में विजय ठंड से ठिठुरते एक भिखारी को अपना कोट उतार कर दे देता है और उस भिखारी की एक दुर्घटना में मौत हो जाती है। दुनिया समझती है कि विजय मर गया और उसे चाहने वाली और उसके नज्मों की प्रशंसक गुलाबो उसकी नज्मों को छपवा देती है। उसके नज्मों की किताब छपते ही विजय मशहूर हो जाता है। विजय का इलाज मानसिक चिकित्सालय में हो रहा होता है जहाँ वह अपनी नज्म सुनकर ठीक हो जाता है और अपने चंपी करने वाले दोस्त अब्दुल सत्तार की मदद से मानसिक चिकित्सालय से भाग जाता है। इधर विजय के दोनों भाई उस प्रकाशक के पास जाकर अपना हिस्सा माँगते हैं क्योंकि विजय के न रहने की स्थिति में उन्हें विजय के किताब की रायल्टी मिलनी चाहिए। प्रकाशक घोष बाबू यानि मीना के पति उन्हें भगाने वाले होते हैं कि उन्हें पता चलता है कि विजय जिंदा है और कभी भी वापस आ सकता है। वह उन्हें इस बात पार राजी कर लेते हैं कि दोनों भाई विजय को देख कर उसे नहीं पहचानेंगे। यहाँ तक फिल्म बहुत अच्छी है और एक अच्छी फिल्म की तरह अच्छे गीतों, अच्छे अभिनय और अच्छे छायांकन से दर्शकों को बांधे रखती है लेकिन इसके बाद फिल्म का वह हिस्सा शुरू होता है जो पूरी दुनिया को इस फिल्म का मुरीद बना देता है और हर दौर में कालजयी होने का वरदान दे जाता है।

विजय लौट कर उस दुनिया में वापस आता है जहाँ वो मरा हुआ मान लिया गया है। उसकी नज्में सबकी जबान पर हैं और लोग उसके मुरीद हुए जा रहे हैं। उससे संबंध निकलना और उसे अपना परिचित बताने में फख्र महसूस कर रहे हैं। वह दुनिया का यह रूप देखता है और एक गहरी वितृष्णा उसके भीतर भरती जाती है। यह वही दुनिया है जहाँ मरने से पहले सम्मान दिए जाने की परंपरा नहीं है, यह वही दुनिया है जहाँ मौत के बाद बुत बनाए जाते हैं लेकिन जिंदा रहते कोई आँसू पोंछने नहीं आता, यह वही दुनिया है जहाँ दुनिया छोड़ देने के बाद सम्मान और सभाएँ आयोजित की जाती हैं और जिंदा इनसान के जज्बातों की कोई कद्र नहीं की जाती, यह वही दुनिया है जहाँ मर चुका आदमी महान और प्रतिभावान बताया जाता है और जिंदा रहते उसे बेकार बताया जाता है और उसकी शायरी की हजामत से तुलना की जाती है। विजय को यह दुनिया नहीं चाहिए, वह इस दुनिया में आग लगा देना चाहता है। उसके भाई, जिनसे उसका खून का रिश्ता है, उसे पैसों के लिए नहीं पहचानते और उसकी प्रेमिका धनवान इनसान से शादी करने के लिए उसे छोड़ चुकी है। वह इस दुनिया की असलियत को समझ चुका है और इसका बहिष्कार कर देता है।
विजय जब सभागार में पहुँचता है तो देखता है कि पूरा सभागार खचाखच भरा हुआ है और उसकी मौत को अपने फायदे का धंधा बनाने वाला प्रकाशक माईक पर कह रहा है, ‘दोस्तों, आपको पता है कि हम आज यहाँ ‘शायर-ए-आजम’ विजय मरहूम की बरसी मनाने इकट्ठा हुए हैं। पिछले साल आज ही के दिन वह मनहूस घड़ी आई थी जिसने इस दुनिया से ‘इतना बड़ा शायर’ छीन लिया। अगर हो सकता तो मैं अपनी सारी दौलत लुटा कर, खुद मिटकर भी विजय को बचा लेता लेकिन ऐसा हो ना सका… काश आज वह जिंदा होते तो देख लेते कि जिस दुनिया ने उन्हें भूखा मारा वही दुनिया उन्हें हीरों और जवाहरातों में तौलना चाहती है। जिस दुनिया में वह गुमनाम रहे वही दुनिया उन्हें दिलों के तख्त पर बिठाना चाहती है, उन्हें शोहरत का ताज पहनना चाहती है, उन्हें गरीबी और मुफलिसी की गलियों से निकाल कर महलों में राज कराना चाहती है।’ विजय एक संवेदनशील शायर है, उसकी शायरी चीख उठती है, ‘ये महलों ये तख्तों ये ताजों की दुनिया, ये इंसा के दु्श्मन समाजों की दुनिया, ये दौलत के भूखे रिवाजों की दुनिया, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है।’ वह फिर से वैसी ही एक सभा में माईक पर खड़ा है और सफल हो चुके विजय के जिंदा होने की खबर सुनकर वही दुनिया वहाँ फिर से खड़ी है। वहाँ लोग विजय के असली विजय होने पर शक जाहिर करते हैं। सब कुछ विजय के बोलने पर ही निर्भर करता है और विजय यह कहकर इस दुनिया का बहिष्कार कर देता है कि वह विजय नहीं है। भीड़ गुस्से से पागल हो जाती है और तोड़-फोड मचा देती है। दौलत शोहरत और सफलता को इस तरह ठुकराना किसी को समझ में नहीं आता। सभी दुनिया के इन्हीं पैमानों से विजय को समझाने की कोशिश करते हैं। उसकी पूर्व प्रेमिका मीना उसे समझाती है कि वह ऐसी गलती ना करे। उसके भाई, दोस्त सभी उसे पहचान रहे हैं। विजय कहता है कि वो लोग उसके भाई और दोस्त नहीं हैं, वो दौलत के दोस्त हैं। जो लोग कल उसे पहचानने को तैयार नहीं थे, आज वो उसके दोस्त होने का दावा कर रहे हैं। मीना कहती है कि उसे दौलत और शोहरत को नहीं ठुकराना चाहिए, अगर ठुकराना ही है तो उन दोस्तों और उन भाइयों को ठुकराना चाहिए। इस सवाल के बाद विजय वह जवाब देता है जो अलग अलग समय पर समाज में फकीर, संत, शायर और बहुत सारे फक्कड़ लेखक अपने अपने तरीके से उठाते रहे हैं। वह कहता है, ‘मुझे उन लोगों से कोई शिकायत नहीं, मुझे किसी इनसान से कोई शिकायत नहीं। मुझे शिकायत है समाज के उस ढाँचे से जो इनसान से उसकी इनसानियत छीन लेता है, मतलब के लिए अपने भाई को बेगाना बनाता है… मुझे शिकायत है उस तहजीब से, उस संस्कृति से जहाँ मुर्दों को पूजा जाता है और जिंदा इनसान को पैरों तले रौंदा जाता है।’ वह मीना से कहता है कि वह दूर जा रहा है। उसके वहाँ से जाते समय उसके पीछे ढेर सारे कागजों के उड़ने का दृश्य वी के मूर्ति ने कमाल का फिल्माया है मानो विजय अपने पीछे अपनी सारी नज्मों को बिखेर कर जा रहा हो जो दुनिया के साथ हमेशा बनी रहेंगी।

फिल्म के अंत पर फिल्म के लेखक अबरार अल्वी और गुरुदत्त के बीच दो राय थी कि अंत कैसा रखा जाए और आखिर में गुरुदत्त द्वारा प्रस्तावित अंत रखा गया जो फिल्म के मूड पर सटीक तो नहीं बैठता लेकिन आशावादी है। आशावादी इस मायने में कि पूरी दुनिया स्वार्थी हो जाए तो भी किसी ना किसी रिश्ते में स्वार्थहीनता कभी ना कभी बची हुई मिलती है जो जीने का कारण देती है जिसके कारण दौलत और सफलता के खोखलेपन के बावजूद यहाँ जिया जा सकता है। साहिर के गीत, मूर्ति का कैमरा और बड़े बर्मन का संगीत सब मिलाकर एक ऐसी सृष्टि की रचना करते हैं जो डुबा देती है, एक ऐसी कृति का निर्माण होता है जो लंबे समय के लिए खाली कर देती है। फिल्म से कुछ लोगों की शिकायत इसकी धीमी गति की है जो इसके संवेदनशील विषय को देखते हुए निराधार है। फिल्म के विषय के हिसाब से यह वाकई धीमी और लगभग निराशावादी है लेकिन यही इसकी खूबसूरती है। वैसे तो फिल्म की मोनोटोनी को तोड़ने के लिए जॉनी वाकर को और उनके चंपी गीत को डाला गया है पर इसके बावजूद विजय का तनाव दर्शकों के सिर पर चढ़ कर बोलता है क्योंकि वह बहुत जीवंत है। फिल्म को टाईम पत्रिका ने 2005 में दुनिया की 100 सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में रखा था और ये कालजयी 10 रोमांटिक फिल्मों की सूची में भी है।