हालीवुड ने शख्सियतों एवं जीवनियों पर अनेक फिल्में बनाई हैं । महात्मा गांधी से लेकर नेपोलियन और फिर महारानी एलिजाबेथ के जीवन को परदे पर लाने का दुर्लभ साहस किया । इतिहास से प्रेरित होकर अनुकरणीय कहानियों को याद करने की ख्याति उनके पास है । हिन्दी सिनेमा ने भी ऐतिहासिक कहानियों पर बहुत सी फिल्म बनाई, चंगेज खां तथा मुगल बादशाह अकबर से लेकर ‘जहांगीर’ एवं ‘शाहजहां की गाथा को प्रस्तुत किया। लेकिन फिल्मों की गुणवत्ता को अधिक सकारात्मक सराहना नहीं मिली । डॉ ‘कोटनिस की अमर कहानी’ मील का पत्थर जरूर थी । कह सकते हैं कि पीरियड कहानियों को जमीन पर लाने का हमारा अंदाज हालीवुड से अलग होकर पोपुलर की तरफ अधिक झुक जाता है। लेकिन पान सिंह तोमर एवं भाग मिल्खा भाग इसमें अपवाद कही जानी चाहिए । ऐतिहासिक कहानियों को प्रस्तुत करने में उससे अलग होने पर कहानी की विश्वसनीयता व लय टूट सकता है।
स्वाधीनता संग्राम की ऐतिहासिकता से हिन्दी सिनेमा को अनेक कहानियां व पात्र मिले, क्रांतिकारियों की गाथाएं इस संदर्भ में यादगार थी। देश के लिए शहीद हुए क्रांतिकारियों के प्रेरणा स्रोत भगत सिंह-सुखदेव-राजगुरू-आज़ाद-बिस्मिल-अशफाक़ के जीवन प्रसंगों को बुनकर ‘शहीद’ की धारा की फिल्में बनी। इन क्रांतिकारियों में शहीद भगत सिंह पर सबसे ज्यादा फिल्में बनी । भगत सिंह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के ध्रुवतारे थे, एक सक्षम प्रेरणा स्रोत जो आज भी लाखों युवाओं के प्रेरक हैं । क्रांतिकारियों की अमर गाथा एक अमर कहानी है । हिन्दी सिनेमा में ‘भगत सिंह’ पर दर्जन भर से अधिक फिल्में बनी, पहला प्रयास दिलीप कुमार अभिनीत ‘शहीद’ थी । कथा में राष्ट्र की युवा शक्ति को भगत सिंह के जीवन दर्शन अपनाने की प्रेरणा मिली । फिर शम्मी कपूर की एक फिल्म भी देश के अमर शहीदों से प्रेरित रही। मनोज कुमार की ‘शहीद’ मूल रूप से क्रांतिकारियों के जीवन प्रसंगों के ऊपर आधारित कहानी थी, फिर अरसे बाद आधुनिक नयी सदी में ‘भगत सिंह’ पर तीन-चार फिल्में एक के बाद एक रिलीज हुई । उनमें राजकुमार संतोषी की फिल्म ‘द लेजेंड आफ भगत सिंह’ (अजय देवगन) को काफी सराहा गया ।
इन सबसे गुजरते हुए कहना होगा कि मनोज कुमार की शहीद आज भी प्रभावित करती है। शायद यही वजह है कि स्वतंत्रा अथवा गणतंत्र दिवस पर यह फिल्म याद आती है। गांव के बेहद अमीर व्यक्ति के घर लोहडी का आयोजन हुआ है। यहां किशन सिंह (सप्रु) पत्नी (कामिनी कौशल) व बच्चे भगत (मास्टर राजा) के साथ आएं हैं । त्योहार की खुशियों के बीच अंग्रेजों के जुल्म से पीडित एक किसान मदद की गुहार लगाते हुए आता है । किशन सिंह का भाई अजीत सिंह (कृष्ण धवन) सहायता के लिए आगे बढकर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ ‘विद्रोह’ का बिगुल बजा देता है । किशन सिंह भाई को एहतियातन मुल्क छोड देने का मशविरा देता है। जिसे मानकर परिवार व दोस्तों को छोड भगत के चाचा मुल्क से चले जाते हैं । बालक भगत पूरे वाकये को समझ नहीं सका, वह प्रश्नों से घिरा था कि क्युं चाचा को देश छोडने के लिए मजबूर किया गया? देश पर अंग्रेजों का शासन क्युं है।
आज जब घटना को वर्षों गुजर चुके हैं, लोहडी का मंजर फिर आया है । गांव के एक क्रूर रसूखदार के यहां ‘लोहडी’ पर्व का आयोजन है, एक पीडित किसान जुल्म व सितम के खिलाफ गुहार लगाते वहां आया। रसूखदार के अन्याय व शोषण के विरुध ‘भगत सिंह’ विद्रोह का (मनोज कुमार) बिगुल बजाता है । भगत इस भीड में ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का नारा लगाते हुए प्रवेश कर जाते हैं । किसानों व कामगारों की मदद के लिए आगे आया, वतन पर मिटने वाले एक क्रांतिकारी का उदय हो चुका था । स्वाधीनता आंदोलन के प्रति हरेक हिन्दुस्तानी को जागरूक करने में ‘हिन्दुस्तान सामाजिक संगठन’ ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। भगत सिंह संगठन के एक सक्रीय सदस्य थे । यहां पर सुखदेव (प्रेम चोपडा), राजगुरू (आनंद कुमार), आज़ाद (मनमोहन), दुर्गा भाभी (निरूपा राय) जैसे क्रांतिकारी अपने अभियानों के ऊपर योजनाएं बनाते थे । कथा में बहुत स्पष्ट रूप से नहीं दिखाया गया कि भगत सिंह बाक़ी के क्रांतिकारियों से कब और कैसे मिले? भगत सिंह पर अत्यधिक फोकस होने की वजह से कहानी में उनकी साथियों की कहानी को महत्व नहीं मिला। यदि इन्हें थोडा अधिक हिस्सा मिला होता तो शायद फिल्म ज्यादा महान हो पाती। भगत सिंह पर आधारित ज्यादातर फिल्में इसी कसक से ग्रसित थी।
कथा के रूख को मोड देने वाली पहली घटना में लाला लाजपत राय के अहिंसक विद्रोह का अंश दिखाया जाता है। लाला लाजपत राय साईमन कमीशन के विरोध में शांतिपूर्ण जुलूस लेकर निकले हैं, भारी समर्थन के साथ जन हुजूम लाहौर की सडकों पर बढ रहा है । भीड को अंग्रेजी शासन आगे नहीं बढने नहीं देना चाहता, रोके जाने पर लाला जी विरोध करते हैं। भीड तोडने के लिए पुलिस लाठीचार्ज को आगे बढी जिसमें लाला जी शहीद हो गए। लाला लाजपत राय की शहादत का बदला लेने के लिए भगत सिंह व क्रांतिकारी साथी एकजुट होकर योजना बनाते हैं । क्रांतिकारी लाहौर के मुख्य पुलिस हाकिम ‘स्काट’ की हत्या की योजना बनाते हैं,लेकिन मामूली सफलता के साथ केवल डिप्टी ‘साउंडर्स’ मारा जाता है । साउंडर्स कांड के बाद फिरंगी भगत सिंह व साथियों की तलाश में क्रांतिकारियों का पीछा कर रहे थे। पहचान छुपाने के लिए भगत बहरूपिए की शक्ल में घूम रहे थे। अंग्रेजों की आंखों में धूल झोंक कर वह अपने अभियानों में फिर भी सक्रीय रहे।
इस दरम्यान राजधानी दिल्ली में डिफेंस आफ इंडिया एक्ट’ पास करने के लिए ब्रिटिश हुकूमत जिद पर अडी हुई थी । केंद्रीय विधान सभा में विषय का जोर-शोर से विमर्श हो रहा, कानून भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों के दमन की नीति का हिस्सा है । बिल को पास न होने देने के लिए भगत सिंह एवं बटुकेश्वर दत्त असेंबली (संसद) में बम फेंक देते हैं— असेंबली सीन वास्तविक ‘संसद भवन’ पर शूट हुआ ताकि सत्यता महसूस हो। घटना बारे में एक ज्ञापन फिल्म क्रेडिट्स में मिलता है। बम कांड में कोई भी फिरंगी नहीं मारा जाता, क्रांतिकारियों की ऐसी मंशा भी न थी। बम फेंकने का मकसद केवल सदन की कार्यवाही को भंग करना था, लेकिन मूल उददेश्य को लेकर स्थिति साफ नहीं क्योंकि क्रांतिकारी अपने पीछे ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का बुलंद नारा लिखा परचे छोड गए…
किसी भी क्रांतिकारी अभियान की तरह । शासन ने इसे अपने खिलाफ गंभीर आंदोलन की तरह लिया। भगत सिंह व साथियों पर मुकदमा चला, बचाव पक्ष के वकील आसफ अली (जगदेव) क्रांतिकारियों का पक्ष विजयी रूप से रख ना सके । नतीजतन सभी को जेल की सजा मिली । अंग्रेज भगत सिंह व सुखदेव पर हुकूमत का मुखबिर बनने के लिए दबाव बनाते हैं ,लेकिन इस नीच काम का दोनों सिरे से विरोध करते हैं । क्रांतिकारियों का सच जानने के लिए भगत सिंह व सुखदेव को जी भर के यातनाएं दी गई, लेकिन अदम्य साहस व वीरता का ऐसा परिचय दिया जिसे आज भी महान प्रेरणा कहना चाहिए । जेल में क्रांतिकारियों की मुलाकात दूसरे कैदियों से हुई, जिनमें डाकू ‘कहर सिंह’ (प्राण) का पात्र प्रमुखता से उभर कर आया था । क्रांतिकारियों को अपने अभियान में देशप्रेमी कहर सिंह से कोई विशेष सहयोग नहीं मिला। बटुकेश्वर दत्त कहर सिंह को ‘भारत माता’ की दासता की कहानी बताता है,फिर भी उसमें एक क्रांतिकारी वाली बात नहीं बनी। यह स्पष्ट नहीं हो सका कि बम-गोलों की बात करने वाले डाकू ने क्रांतिकारियों की क्यों नहीं सुनी ? उनके महान अभियान की सहायता में आगे क्यों नहीं आए।
कैदियों को मिलने वाले खराब भोजन पर भगत सिंह विद्रोह करता है, विरोध में वह आमरण अनशन पर चला जाता है । क़ैदियों को खाना बांटने वाला ‘धनीराम’ (असीत सेन) इस बारे में कुछ नहीं कर सकता, दिन बढने के साथ क्रांतिकारियों की हालात खराब होती जाती है। छत्तर सिंह (अनवर हुसैन) को भी क्रांतिकारियों की तकलीफों से संवेदना है, मगर हांथ बंधे होने कारण चाह कर भी इनकी सहायता नहीं कर सकता । इस सबके ऊपर हुक्मपरस्त जेलर (मदन पुरी) व उसके आक़ा की क्रूर व सामंती नीतियां हालात को चरम पर ले गए। क्रांतिकारियों की संगत से जेल के बाक़ी कैदी भी फिरंगियों के विरोध उठ खडे ना हो…भगत सिंह व साथियों को उनसे अलग रखा जाता था। आक़ा द्वारा भगत को तय तारीख से एक दिन पूर्व फांसी देने का अनैतिक निर्णय कठोर जेलर में भी क्रांतिकारियों की खातिर सम्मान दे गया। हिंदुस्तानी होकर फिरंगियों के शासन में सेवा देना लोगों ने क्यों चुना? पीडा की सीमा देखिए कि ज्यादातर इस किस्म की कहानियों में भारतीय पात्रों को अंग्रेजो की नौकरी करने वाला दिखाया गया। भगत सिंह की कहानी को परदे पर दिखाने की पहल अपने नेक मकसद में महान थी। फिल्म क्रांतिकारियों के यादगार योगदान को मुडकर देखने की कोशिश में सफल कही जा सकती है। काश इतिहास कुछ अलग होता तो भगत सिंह आजाद भारत को देख पाते!