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साहित्य के बाद सिनेमा में उतारे गए बनारस की तस्वीर

काशीनाथ सिंह की कृति ‘काशी का अस्सी’ पर आधारित’ मोहल्ला अस्सी’ को लेकर शुरू से ही उत्सुकता रही थी। ऐसे हालात में जहां पे मुख्यधारा साहित्यिक रचानाओं पर फिल्में बनाने में न के बराबर दिलचस्पी लेती है। वहां पर मोहल्ला अस्सी का बन कर रिलीज़ हो पाना महत्व रखता है।

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सनी देओल की ‘मोहल्ला अस्सी’ लंबे इंतजार के बाद रिलीज़ हुई थी । बाजारवाद की चपेट में आकर धराशायी होते सामाजिक और नैतिक मूल्य पर बात रखी गई थी। धर्म और आस्था के नाम पर किए जाने वाले आडंबर और राजनीतिक पतन को अनुभव करने के लिए फ़िल्म जरूर देखी चाहिए। धर्म, राजनीति, संस्कृति आदि विषयों पर इस किस्म की फिल्में बननी चाहिए।

हाल के दशक में बनारस पृष्टभूमि लिए सफ़ल फिल्मों का निर्माण हुआ है।रांझणा, मसान,बनारस जैसे अच्छे उदाहरण हैं।बनारस की मुक्कमल तस्वीर गढ़ने की कोशिश हर फिल्म में हुई।मोहल्ला अस्सी में भी इसी की तस्वीर मिलती है। बनारस के घाटों पर जीवन का नमूना इसमें है। सामाजिक राजनीतिक विमर्श के इर्द गिर्द घूमते प्राचीन शहर की स्थित को दिखाया गया है।

हिंदी के वरिष्ठ लेखक काशीनाथ सिंह की कृति ‘काशी का अस्सी’ पर आधारित यह फिल्म धर्मनाथ पांडेय (सनी देओल) सिद्धांतवादी पुरोहित व अध्यापक की कहानी कहती है। धर्मनाथ विधर्मियों अर्थात विदेशी सैलानियों की घुसपैठ के सख्त खिलाफ है। उनकी ख़िलाफ़त से अस्सी मोहल्ले में कोई चाहकर भी विदेशी किराएदार नहीं रख पाता। किंतु बदलते वक्त के साथ धर्मनाथ पांडेय को अपने सिद्धांत, आदर्श और मूल्य खोखले लगने लगते हैं । समझौता करने को तैयार हो जाते हैं। दिलचस्प रूप से पप्पू की चाय की दुकान अहम किरदार बनकर उभरना फ़िल्म को रोचक बनाता है।

चन्द्रप्रकाश द्विवेदी की फ़िल्म विवादों में पड़ने बाद रिलीज़ हो सकी थी। अभिनय के मामले में सनी देओल अलग छाप छोड़ने में कामयाब हुए हैं। डायलॉग व भाषा डिलीवरी थोड़ी बेहतर हो सकती थी। धर्मनाथ पांडेय की पत्नी के रोल में सांक्षी तंवर और गिन्नी की भूमिका में रवि किशन प्रभावित करते हैं। सौरभ शुक्ला, सीमा आजमी सहित सहयोगी कलाकारों ने मोहल्ला अस्सी को ओरिजनल आयाम दिया है।फिल्म में इस बात को लेकर गम्भीर विमर्श है कि हर चीज का बाजारीकरण हो गया है। गंगा मैया से लेकर योग तक बाज़ार से गवर्न हो रही हैं। हर वस्तु को बाज़ार प्रभावित कर रहा। वो दिन दूर नहीं जब हवा भी बेची जाएगी।फिल्म में इस बात को भी दर्शाने की कोशिश की गई है कि ज्ञानी इन दिनों मोहताज हो गया है। पाखंडी पूजे जा रहे हैं। बनारस की साख दाव पर है। इसकी मासूमियत व एकांकीपन को बचाने की जरूरत है।

फ़िल्म अनिवार्य रूप से साहित्य का सिनेमाई रूपान्तरण है। साहित्य से सिनेमा में आए बहुत से प्रयासों को इतिहास ने भूला दिया है। हिन्दी सिनेमा का इतिहास गवाह रहेगा कि महान फ़िल्मकारों ने हमेशा साहित्य परम्परा वाले लेखकों से सेवाएं ली..फिर भी सिनेमा साहित्य को कम ही  रास नहीं आया।

काशीनाथ सिंह की ‘काशी का अस्सी’ पर आधारित’ मोहल्ला अस्सी’ को लेकर शुरू से ही उत्सुकता रही थी। ऐसे हालात में जहां पे मुख्यधारा साहित्यिक रचानाओं पर फिल्में बनाने में न के बराबर दिलचस्पी लेती है। वहां पर मोहल्ला अस्सी का बन कर रिलीज़ हो पाना महत्व रखता है। रंगमंच पर ‘काशी का अस्सी’ का मंचन काफ़ी सफल साबित हुआ है। इस पर आधारित नाटक ‘काशीनामा’ के अनेक सफ़ल मंचन हुए हैं। भारत एवं विदेश में यह सामान रूप से लोकप्रिय सिद्ध हुआ ।

मीडिया रिपोर्ट्स ने फ़िल्म को साहित्यिक रचना से संबंधित पहली फिल्म बताया था। इसमें रचना को सर्वोपरि रखा गया। फ़िल्म में मोहल्ला अस्सी का जीवंत रूपांतरण देखते ही बना। सिनेमा व साहित्य का सुंदर सामंजस्य सामने लाने की कोशिश हुई है। बाजारवाद के प्रभाव में बनारस के घाटों का रस नहीं छोड़ा गया है। चन्द्रप्रकाश द्विवेदी ने बहुत हिम्मत से ऐसी फिल्म बनाई होगी।

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