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CLASSIC TALE : सबसे अच्छे आदमी की तलाश करती ‘परख’

पढ़िए विमल चंद्र पांडेय का विशेष लेख भ्रष्टाचार पर बनी सबसे कमाल की फिल्म परख पर...

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वैसे तो बिमल रॉय को ‘दो बीघा जमीन’ और ‘बंदिनी’ जैसी फिल्मों के लिए अधिक माना और जाना जाता है लेकिन 1960 में आई ‘परख’ उनकी सबसे अलग स्वाद वाली फिल्म है जिसमें आजादी के बाद के मोहभंग का उन्होंने इतने व्यंग्यपूर्ण ढंग से चित्रण किया है कि दिल कह उठता है, वाह ये है असली डायरेक्टर जिसकी फिल्में एक दूसरे से इतनी अलग अलग हैं कि पता ही नहीं चलता की सारी एक ही व्यक्ति ने बनाई हैं।

‘परख’ कहने को तो एक गाँव में सबसे ईमानदार यानि अच्छे आदमी की खोज करती है लेकिन दरअसल यह आजादी के बाद के उस असंतुष्ट और लूट-खसोट वाले देश में एक अच्छे यानि ईमानदार आदमी की तलाश करती है और पाती है कि धर्म के नुमाइंदे, सामंतवाद के पुरोधा और समाजसेवा के शीर्ष सभी सिर से पाँव तक सिर्फ लालच में डूबे हुए हैं। उम्मीद है तो सिर्फ युवाओं से। फिल्म की शुरुआत बिलकुल साधारण सी है और जरा भी ये आभास नहीं होने देती कि आगे यह व्यंग्य और एक से बढ़कर एक अनपेक्षित मोड़ों वाली कहानी साबित होने वाली है। निवारन पोस्ट मास्टर आर्थिक रूप में बहुत गरीब हैं लेकिन बहुत गैरतमंद और ईमानदार इनसान हैं। उनके ऊपर काफी कर्जे हैं और इसी हालत में में उन्हें बेटी की शादी भी करनी है। उनका सहायक एक नया कर्मचारी हराधन है जो इस बात पर खासा दुखी रहता है कि पोस्ट मास्टर साहब पूरे गाँव की चिट्ठियाँ बाँटते रहते हैं लेकिन उन्हें कोई चिट्ठियाँ नहीं लिखता। गाँव के पंडित जी एक अधेड़ और दुहाजू का रिश्ता उनकी बेटी सीमा के लिए लाते हैं लेकिन वह इनकार कर देते हैं। दूसरी तरफ गाँव के स्कूल का मास्टर और लड़कों की टीम बना कर समाज सेवा करने वाला रजत सीमा को चाहता है और सीमा भी उससे प्रेम करती है। सब कुछ अपनी गति से चलता रहता है तभी फिल्म में अचानक एक ऐसा घुमाव आता है कि साधारण से दिखने वाली यह कहानी असाधारण हो जाती है। पोस्ट मास्टर साहब को एक चिठ्ठी और एक पाँच लाख रुपये का चेक आता है। चिट्ठी में यह लिखा होता है की यह रकम गाँव के विकास के लिए खर्च की जाए और साथ ही यह हिदायत भी कि यह चेक गाँव के सबसे ईमानदार और अच्छे आदमी के हाथ में सौंपा जाए।

पोस्ट मास्टर साहब गाँव के सबसे तथाकथित जिम्मेदार आदमियों को इकठ्ठा करते हैं और यह समस्या उनके सामने रखते हैं। तय रहता है कि अगले महीने एक चुनाव होगा और गाँव के लोग वोटिंग के जरिए इन लोगों में से सबसे अच्छे आदमी का चुनाव करेंगे। यहाँ से पूरी कहानी बदल जाती है। गाँव का डाक्टर जो बिना फीस लिए किसी गरीब को सलाह तक नहीं देता था, अचानक मुफ्त में घर घर जाकर मरीजों को देखने लगता है। गाँव का जमींदार किसानों का लगान माफ कर देता है और गाँव के पंडित जी धर्म के नाम पर सबको बरगलाने की कोशिशों में लग जाते हैं। डाक्टर साहब इलाज पर इलाज किए जा रहे हैं। हराधन जमींदार साहब से कहता है, ‘डाक्टर साहब को लोग गाँव का सबसे अच्छा आदमी बता रहे हैं। कुछ मर्ज हो या न हो, वो तो इलाज किए चले जा रहे हैं। कहते हैं हम तो परोपकार करेंगे, हमें कोई नहीं रोक सकता।’ डाक्टर की बढ़ती लोकप्रियता से जमींदार साहब डर जाते हैं कि अब तो चुनाव में डाक्टर ही जीतेगा, लिहाजा वह गाँव वालों का दस हजार रुपये का लगान पूरी तरह माफ कर देते हैं। यह खबर लेकर हराधन जब भंजू बाबू के पास जाता है तो उनके पाँव तले जमीन खिसक जाती है और चुनाव का नतीजा सीधा सीधा उन्हें जमींदार साहब के पक्ष में जाता दिखाई देता है। वह ठेकेदार को आदेश देते हैं कि गाँव की सभी सड़कें पक्की कर दी जाएँ और छह की जगह बीस ट्यूबवेल लगवा दिए जाएँ। इन सबके बरक्स पंडित तर्कालंकार शास्त्री के पास सबसे बड़ा हथियार है धर्म और उनके भगवान जिन्हें वह लालच भी दे रहे हैं कि हे प्रभु, एक बार ये रकम हाथ आ जाए तो तुम्हारा मंदिर सोने से मढ़वा दूँगा।

गाँव के लोग इस परिवर्तन पर हैरान हैं। जमींदार ने लगान माफ कर दिया है दूसरी तरफ डाक्टर लोगों का मुफ्त इलाज कर रहा है। गाँव की दुकानों चौपालों पर यह चर्चा का विषय है और वे इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि सतयुग आने वाला है। दूसरे गाँव में एक बाबा आए हैं जो ऐसा ही बताते हैं और गाँव वालों के पास उन पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है। जब चुनाव का दिन नजदीक आने वाला है तब तो कमाल ही हो जाता है। दिन भर खाट पर लेट कर हुक्का पीने वाला जमींदार अब खेतों में जा रहा है और किसानों को मुफ्त में बीज बाँट रहा है, मेले में सबको मुफ्त खाना खिला रहा है। डाक्टर ने बाकायदा अपने अस्पताल को खैराती अस्पताल में बदल दिया है। मुफ्त में नाच दिखाए जा रहे हैं लेकिन यहाँ भी शास्त्री जी अपने धर्म वाले कार्ड की वजह से बाजी मारने में आगे हैं। उनकी जमीन से लक्ष्मी जी निकलने वाली हैं और इसके लिए उन्होंने बाकायदा पंडित जी को सपने में दर्शन देकर समय तक बता दिया है। लोग जय-जयकार कर रहे हैं और सभी लोगों की जय-जयकार पंडित तर्कालंकार शास्त्री को वोटों में बदलती साफ दिखाई दे रही है लेकिन लक्ष्मी जी जमीन फाड़ कर निकलीं कैसे, यह राज भंजू बाबू को पता चल जाता है और वो आपस में चुनाव पूर्व समझौता कर लेते हैं। चुनाव वाले दिन वह सब कुछ होता है जो हमारे लोकतंत्र की शान सा बन गया है, बूथ कैप्चरिंग, बोगस वोटिंग, वोट तोड़ने की कोशिशें और मार पीट। आखिर में एक नाटकीय घटनाक्रम में यह राज खुलता है कि चेक भेजने वाले सर जे सी रॉय कौन हैं और यह चेक किसे मिलना चाहिए। गाँव के सब लोग मिल कर निर्णय लेते हैं कि गाँव का सबसे ईमानदार आदमी कौन है और चेक उसके हवाले कर दिया जाता है।

इस फिल्म की कहानी इतनी प्रासंगिक है कि आज भी ऐसा लगता है कि वर्तमान दौर की बात कही जा रही है। चुनाव के जरिए बिमल दा ने समाज के तथाकथित ठेकेदारों को आईना दिखने का काम दिया है। हम आज भी इन चरित्रों को अपने आसपास आसानी से देख सकते हैं। वोट लेने के लिए आज के सफेदपोश चरित्र कैसे कैसे रंग बदलते हैं और जनता के कैसे हितैषी बन कर सामने आते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। ये चीजें आगे कैसे कैसे रूप दिखा सकती हैं, इसका अंदाजा बिमल दा को था और वे इसीलिए महान थे। जनता को खिला कर, मनोरंजन करा कर या धर्म के नाम पर डरा कर वोट लेने का जो दृश्य फिल्म में है, वो उस समय से ज्यादा आज प्रासंगिक नजर आता है।

सलिल चौधरी का संगीत बहुत मर्मस्पर्शी है और उसी तरह के हैं शैलेंद्र के गीत। कहानी भी सलिल चौधरी की ही थी लेकिन एक और चीज जो फिल्म में अलग से नजर आती है वो है शैलेंद्र के संवाद। फिल्म के संवाद बहुत चुटीले हैं और जगह जगह पर व्यंग्य ऐसा है कि दर्शक एक तीखी चुभन के साथ मुस्करा उठता है। जब पूरे गाँव को दौड़ा दौड़ा कर इलाज करने पर उतारू डाक्टर हराधन से पूछता है कि उसकी आँखें इतनी पीली क्यों हैं तो हराधन मुस्करा कर कहता है, ‘आजकल गाँव में तरह तरह के रंग दिख रहे हैं तो आँखों का रंग काला पीला लाल हरा कुछ भी हो सकता है। डाक्टर फिर पूछता है, ‘तेरा हाजमा ठीक है?’ इस पर हराधन होठों पर व्यंग्य भरी मुस्कराहट लाकर कहता है, ‘सब चीजें हजम नहीं होतीं, खास करके हमदर्दी। अगर इसकी ज्यादती हो जाती है तो खट्टी खट्टी डकारें आने लगती हैं।’

‘ओ सजना बरखा बाहर आई…’ गीत आज भी संगीत प्रेमियों कि जुबान पर रहता है। सलिल के संगीत निर्देशन में लता जी का गाया यह गीत सदाबहार है और इसी तरह इसका फिल्मांकन भी उतना ही सहज और नैसर्गिक लगता है। कमल बोस का छायांकन यहाँ कमाल का प्रभाव पैदा करता है जब गीत शुरू होने से पहले कीट पतंगों का शोर कुछ क्षणों के लिए होता है और पानी के जमीन पर गिरने कि एकदम सजीव आवाज सुनाई देती है। कुछ पलों बाद अचानक एक सुरीली आवाज गाती है ‘ओ सजना…’ और एकाएक सितार की धुन सुनाई देने लगती है। फिल्म के अन्य गीत भी अच्छे हैं, खास तौर पर ‘सौ सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली’ बहुत चुटीला गीत है और फिल्म की स्थिति पर बहुत सटीक बैठता है।

अभिनय में सभी कलाकारों ने अपना सर्वश्रेष्ठ देने का प्रयास किया है लेकिन पोस्ट मास्टर निवारन कि भूमिका में नजीर हुसैन और पंडित तर्कालंकर कि भूमिका में कन्हैयालाल कुछ ज्यादा ही असरदार साबित होते हैं।

फिल्म बिमल रॉय के व्यक्तित्व के एक सर्वथा नए पहलू को पेश करती है और कटाक्षों के जरिए आगे बढ़ती है। बतौर निर्देशक रॉय को इस फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फिल्मफेयर पुरस्कार मिला था।

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