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60 YEARS OF KAAGAZ KE PHOOL : बिछड़े सभी बारी बारी..

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2 जनवरी 1959 में रिलीज हुई फिल्म KAAGAZ KE PHOOL को आज यानी 2 जनवरी 2019 को 60 साल पूरे हो गए….रिलीज के बाद बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिरी ये फिल्म बाद में कल्ट सिनेमा साबित हुई और इसे all time greatest film की कैटेगरी में शामिल किया गया…. निर्माता-निर्देशक गुरू दत्त अपनी फिल्म के शुरूआती 8 मिनट में ही आपको फिल्म की आत्मा से वाकिफ कराते नजर आते है….जिसमें दिखाया जाता है कि अपने दौर में जो आदमी नाम, शोहरत, पैसा और लोगों की भीड़ से हर वक्त घिरा रहता है…वो ही इंसान उस दौर के खत्म हो जाने के बाद एक मामूली जिंदगी के लिए भी दर-दर का मोहताज हो जाता है… फिल्म की एक बेहद संवेदनशील यात्रा पर आपको ले जा रही हैं हमारी होनहार राइटर प्राची..

KAGAZ KE PHOOL STILL

 फिल्म KAAGAZ KE PHOOL में गुरू दत्त और वहीदा रहमान मुख्य भूमिकाओं में है….गुरू दत्त जो अपने वक्त का सबसे कामयाब और मशहूर डायरेक्टर सुरेश सिन्हा के किरदार में है….वो काम अपनी और अपनी फिल्म की मर्जी के मुताबिक करता है, ना कि निर्माता और बड़े अदाकारों के मुताबिक…इसी रवैये के कारण फिल्म इंडस्ट्री में उसका कोई अच्छा और सच्चा दोस्त या साथी नहीं है…ये ही नहीं उसके इस बर्ताव के कारण उसकी बेहद ही अमीर घराने की बीवी भी उससे अलग अपने मां-बाप के साथ रहती है…दोनों की एक बेटी है…जिससे गुरू दत्त को बेहद लगाव है लेकिन कोर्ट के आर्डर के कारण वो उससे मिल नहीं सकता..

फिल्म के एक सीन में गुरुदत्त और वहीदा

इस निजी तनाव के दौर में भी उसे अपनी फिल्म देवदास में पारो के किरदार के लिए एक ऐसे चेहरे की तलाश है जिसमें मासूमियत के साथ साथ एक ताज़गी हो.. एक कशिश हो….और एक बरसात की रात उसकी मुलाकात होती है शांति (वहीदा रहमान) से….जो एक अनाथ है….सुरेश उसे अपनी फिल्म में पारो के किरदार का ऑफर देता है…फिल्म की शूंटिग के दौरान सुरेश का एक्सीडेंट हो जाता है…जिसमें वो बुरी तरह से घायल हो जाता है….सुरेश का कोई अपना उसके पास नहीं होने पर शांति उसका ख्याल रखने लगती है….और इस दौरान दोनों में एक अपनेपन का रिश्ता बन जाता है….जिसे इस दुनिया और समाज के लिए समझना मुश्किल है….

पारो के रोल में वहीदा

फिल्म KAAGAZ KE PHOOL में एक सीन है जब सुरेश एक्सीडेंट के बाद लेटा है..रात का वक्त होता है.. वो उठता है पानी के लिए लेकिन पट्टी बंधी होने के कारण उसे कुछ दिखाई नहीं देता वो नर्स समझकर जिसका हाथ थमता है वो असल में शांति होती है…वो उससे पूछता कि शांति कैसी है, कहां है? तो शांति कहती है वो यही है उनके पास….जिसके बाद सुरेश उसे वहां से चले जाने के लिए कहता है शांति कहती है कि क्या वो नहीं चाहते कि वो यहां रूके तो वो कहता है कि चाहता तो वो है लेकिन सही ये ही होगा कि वो यहां से चली जाए…और जैसे वो जाती है वो शांति-शांति कहकर उसके पीछे जाने की कोशिश करता है लेकिन लड़खड़कर गिर जाता हैं…ये सीन महसूस कराता है कि एक टूटे हुए इंसान को जहां प्यार की एक किरण दिखती है वो खींचा चला जाता है….पत्नी से मनमुटाव, बेटी से दूर सुरेश सिन्हा शांति के तरफ खींचे जा रहे होते है लेकिन समाज और दुनियादारी के डर से वो हमेशा खुद को रोकते है….

पूरी फिल्म का आधार सुरेश और शांति की बातों पर है…दोनों की बातें हमें बहुत कुछ दिखाती और समझाती है….शांति जो धीरे-धीरे एक बड़ी फिल्मस्टार बन जाती है और सुरेश जो धीरे-धीरे अपनी अलग सोच के कारण फिल्म इंडस्ट्री से किनारे धकेल दिया जाता है…फिल्म के आखिरी सीन में से एक सीन है…जहां सुरेश की हालत बेहद खराब है और कुछ पैसों के लिए वो फिल्म में एक भिखारी का रोल करने के लिए मजबूर हो जाता है…शूट शुरू होने पर उसे पता चलता है कि फिल्म की हिरोइन शांति है….शूट करते वक्त वो शांति से अपना मुंह छुपाने की कोशिश करता है…लेकिन शांति उसे पहचान जाती है…वो वहां से भाग जाता है शांति उसके पीछे भागती है लेकिन एक वक्त पर जो भीड़ कभी सुरेश को घेरे रहती थी अब वो शांति जो कि एक स्टार है उसे घेर लेती है…और सुरेश उसकी आंखों से ओझल हो जाता है…

KAAGAZ KE PHOOL में और भी कई सीन है जो दोनों के अनकहे रिश्ते की पवित्रता दिखाते है जैसे सुरेश की बेटी का शांति पर उसका घर तोड़ने का इल्जाम लगाना, शांति का फिल्म करियर छोड़कर गांव चले जाना, शांति का शराब में डूबे सुरेश को संभालना…लेकिन फिल्म सबसे गहरी चोट अपनी एंडिग में करती है जहां दुनिया से थका हारा सुरेश आखिर में वापस उसी स्टूडियो में जाता है जहां वो पिक्चरें बनाया करता था और डायरेक्टर की उसी कुर्सी पर वो दम तोड़ता है जो कभी उसकी शान हुआ करती है…लेकिन जब दूसरे फिल्म वाले लोग वहां पहुंचते तो वो उसको पहचाने बगैर उसकी लाश को बाहर करने को कहते है ताकि वो अपनी शूटिंग शुरू कर सके…और ये आखिरी सीन शोबिज की दुनिया का कड़वा और बेहद अमानवीय सच हमको दिखाता है…जिसका मतलब दुनिया केवल उगते सूरज को सलाम करती है और जो डूब गया उसकी कोई कीमत या जरूरत नहीं है….गुरूदत्त की फिल्मों में emotions की intensity अपने चरम पर दिखाई जाती रही है…जो आपके अंदर बहुत गहरे तक असर करती है…

एक क्लासिक मास्टरपीस है KAAGAZ KE PHOOL जो अपने वक्त से बहुत आगे की फिल्म है…क़ागज़ के फूल को भारत की पहली सिनेमास्कोप फिल्म होने का गौरव हासिल है जिसे 20th Century Fox जैसी बड़ी हॉलीवुड कंपनी ने बनाया था। गुरुदत्त को ख़ुद कंपनी ने सामने से इस तकनीक में फिल्म बनाने के लिए प्रस्ताव दिया था जो इस बात को साबित करता है कि विदेशों में भी गुरुदत्त के काम की उनकी फिल्मों की कितनी कद्र थी ।

सबसे अफसोसनाक बात ये कि KAAGAZ KE PHOOL की असफलता ने गुरुदत्त को ऐसा तोड़ा कि उन्होने कभी निर्देशन न करने का फैसला किया। उनके प्रोडक्शन की आगे की दो महत्वाकांक्षी फिल्में चौदहवीं का चांद को मोहम्मद सादिक़ ने डायरेक्ट किया तो और साहब बीवी और गुलाम को कागज के फूल लिखने वाले अबरार अल्वी ने। लेकिन आज कागज के फूल सिनेमा के विद्यार्थियों के लिए किसी सबक से कम नहीं। आज फिल्मसिटी वर्ल्ड ने याद किया न सिर्फ काग़ज़ के फूल को बल्कि महान गुरुदत्त को भी।      

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