फिल्म की शुरुआत में परदे पर एक तारीख छपती है.. 6 अप्रैल 1917 , ये वो अहम दिन था जब ब्रिटिश फौज की एरियल विंग ने अपने अधिकारियों को एक बहुत खास सूचना भेजी । इस संदेश में कहा गया कि जर्मन सेना का फ्रांस के वेस्टर्न फ्रंट से हटना महज एक दिखावा है। दरअसल ये एक खास तरह की रणनीति है जिसके तहत वो इस फ्रंट से तो हट जाएगी लेकिन आगे मौजूद हिडेनबर्ग लाइन पर ब्रिटिश फौज के कत्लेआम का इंतजाम कर रखा है और वो भी तोपों के साथ । समस्या ये है कि युद्ध के मैदान में संदेश पहुंचाने वाली टेलिफोन लाइनें कट चुकी हैं… ऐसे मे ब्रिटिश आर्मी के दो नौजवानों लांस कॉर्पल टॉम ब्लेक और विल स्कॉफील्ड को संदेश पहुंचाने की जिम्मेदारी दी जाती है। इन्हें नो मैंस लैंड को पार कर युद्ध के मैदान के बीचोबींच से गुजरते हुए 8 घंटे की पैदल यात्रा करनी है जिसके बाद वो वेस्टर्न फ्रंट पहुंचेंगे। इन दोनों जवानों को बगैर जान गंवाएं डेवोन रेजिमेंट की दूसरी बटालियन के कमांडिंग ऑफिसर कर्नल मैंकेंज़ी तक पहुंचना है और पहले से निर्धारित अटैक को वापस लेने का ऑर्डर उन तक पहुंचाना है। ये संदेश जरूरी इसलिए है क्योंकि अगर सेना आगे बढ़ जाएगी तो 1600 सैनिकों की जान जाना तय है। इसी बटालियन में संदेशवाहक ब्लेक का बड़ा भाई जोसफ ब्लेक भी तैनात है इसलिए उसके लिए ये संदेश पहुंचाना जज्बाती सफर भी है।
कहानी ब्लेक और स्कॉफील्ड की इसी सफर की है..1917 की कहानी को देखें तो ये एक सिरे से दूसरे सिरे तक पहुंचने वाली बहुत सी सरल सी कहानी है लेकिन इस सिंपल नैरेटिव को निर्देशक सैम मैंडेस ने जिस तरह फिल्माया है या जिन प्रतीकों ( Metaphor ) का इस्तेमाल किया है इस फिल्म का स्तर बढ़ा देते हैं। ये फिल्म आपको युद्ध के बीचोबीच खड़ा कर देगी और आपको लगेगा कि आपके लिए ये संदेश पहुंचना कितना जरूरी है। फिल्म अपने टेक्निकल डिपार्टमेंट में बहुत मजबूत है और इन सारी तकनीकी तेवरों के साथ गजब का तालमेल बिठाया है फिल्मके हर छोटे बड़े कलाकार ने। डायरेक्टर सैम मेंडेस ने इस फिल्म में वन शॉट सिनेमैटोग्राफी का धड़ल्ले से इस्तेमाल किया है जो फिल्म को और ज्यादा असरदार बनाते हैं। लेकिन फिल्मों का विद्यार्थी होने के नाते एक बात मैं यहां कहना चाहूंगा कि वन शॉट टेक्निक से फिल्माने के लिहाज से ये बहुत मुश्किल फिल्म रही होगी। एक तय दायरे में सैनिकों को आगे बढ़ना है, नैचुरल तरीके से टकराना है, गिरना है, संभलना है, इसी बीच सारा एक्शन भी होता रहेगा, बम गिरते रहेंगे, गोलियां चलती रहेंगी और ये सारी हरकतें कैमरा बिना किसी कट के कवर करता रहेगा सोचिए कितने घंटे गए होंगे सिर्फ परफेक्ट शॉट के लिए। वेस्ट के सिनेमा में इमोशन की गुंजाइश कम रखी जाती है और चौंकाने का खेल ज्यादा होता है लेकिन 1917 अपने जज्बाती लम्हो को खुलकर जीती है। यंग सोल्जर्स के बीच की बॉन्डिंग हो या फिर सैनिक की परिवार के लिए बेचैनी सब कुछ बहुत खूबसूरती से पेश करती है ये फिल्म। एक सीन का खासतौर पर जिक्र करना चाहूंगा जब ब्लेक जख्मी है और वो अपने साथी से पूछ रहा होता है कि कहीं वो मर तो नहीं रहा…और इस सीन में स्कॉफील्ड के रोल में जॉर्ज मैके की अदाकारी आपकी आंखे नम कर जाती है।
फिल्म में सीधे युद्ध के दृश्य नहीं है लेकिन ये कमी नहीं खलती है। मेरी नजर में सिनेमैटोग्राफर रॉजर डीकिन्स को इस फिल्म का आधा निर्देशक मान लेना चाहिए क्योंकि उन्होने एक मुश्किल फिल्म को जिस तरह से शूट किया है वो फिल्ममेकिंग में किसी मील के पत्थर से कम नहीं। जॉर्ज मैके और डीन चार्ल्स ने अपने किरदार इतनी मासूमियत, घबरागट, युद्ध के बीच सैनिको के भारी मन से जिए हैं कि आपको उनसे मोह हो जाता है। कैसे एक सैनिक को अपना मन मजबूत करके युद्ध के लक्ष्य को हासिल करना होता है उसे पेश करने में जॉर्ज मैके के कुछ सीन बहुत कमाल के हैं। जैसे एक सीन में युद्ध के बीचों बीच एक बेसमेंट में एक लड़की और छोटा बच्चा बचे हुए हैं…स्कॉफील्ड बच्चे को अपने थर्मस से दूध देता है, महिला को खाने का सामान देता है ताकि वो यहां युद्ध के खत्म होने तक बची रहे। बच्चे से उसका मन लगता है लेकिन उसे जाना है और ये सीन प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल किया गया है जिसके बारे में बहुत सी बातें करके मैं सारा मजा खराब नहीं करना चाहता । 1917 को ऑस्कर अवार्ड्स में 10 नॉमिनेशन मिले हैं और मेरा मानना है कि टेक्निकल कैटेगरी में ये फिल्म जरूर अवार्ड जीतेगी खासकर सिनेमैटोग्राफी का अवार्ड तो बिना विवाद रॉजर के हक में जाना चाहिए। जरूर देखिए 1917.